सड़क ही नहीं, दिल भी खोलें

February 23, 2020

हमारे देश में संवाद की पुरानी परंपरा रही है। केवल संवाद ही नहीं, वाद-विवाद भी हमारी सभ्यता की पहचान बने हैं।

यहां तक कि भारत के संविधान में भी इस पहचान को बनाए रखने का ध्यान रखा गया है। आर्टिकल 19 में बोलने की आजादी को बुनियादी अधिकार माना गया है, जो एक ही विषय पर देश के लोगों को अलग-अलग राय रखने की स्वतंत्रता देता है। हाल ही में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने भी असहमति को लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व बताते हुए कहा है कि असहमति को देश विरोधी ठहराना लोकतंत्र की आत्मा पर चोट करना है।

यह मान्यता जितनी पुरानी होती जा रही है, उतनी इसकी प्रासंगिकता भी बढ़ती जा रही है। ताजा प्रसंग दिल्ली के शाहीन बाग में चल रहे धरना-प्रदर्शन से जुड़ा है। नागरिकता कानून में संशोधन (सीएए) और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजनशिप (एनआरसी) को लेकर इस क्षेत्र की एक बड़ी मुस्लिम आबादी दो महीने से भी ज्यादा समय से धरने पर बैठी है, जिससे इलाके की सड़कों पर आवाजाही ठप हो गई है और लाखों लोग परेशान हो रहे हैं। प्रदर्शनकारियों को समझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता के लिए वरिष्ठ वकील संतोष हेगड़े, साधना रामचंद्रन और पूर्व नौकरशाह वजाहत हबीबुल्ला को वार्ताकार नियुक्त किया। हालांकि वजाहत हबीबुल्ला तो सुलह की कोशिश में ज्यादा सक्रिय नहीं दिखे, लेकिन संतोष हेगड़े और साधना रामचंद्रन ने प्रदर्शनकारियों से तीन दिन में तीन मुलाकात कर बातचीत के जरिए हल निकालने की कोशिश की।

लेकिन, मामला सुलझाने की पहल के बाद भी शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी सीएए वापस लेने के पक्ष में धरना स्थल पर डटे हुए हैं। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि वो अपनी सुरक्षा को लेकर डरे हुए हैं। दोनों वार्ताकारों ने संकेत दिए हैं कि अगर प्रदर्शनकारियों को अदालत से सुरक्षा का भरोसा मिल जाएगा तो वो एक तरफ की सड़क खोलने के लिए तैयार हो सकते हैं। शुक्रवार को इस दौर की अंतिम मुलाकात के बाद गेंद अब फिर से सुप्रीम कोर्ट के पाले में है जहां 24 फरवरी को मामले की अगली सुनवाई है।

नागरिकता की कसौटी पर देखें तो प्रदर्शनकारियों को यह समझना होगा कि अगर देश की सबसे बड़ी अदालत ने उनकी तरफ हाथ बढ़ाया है, तो उन्हें भी आगे बढ़कर इस हाथ को थामना चाहिए क्योंकि यह मसला कानून के साथ चलकर ही सुलझाया जा सकता है। अड़ियल रवैये की वजह से अगर दुर्भाग्यवश शाहीन बाग में कुछ गलत हो गया तो क्या यह जायज होगा कि बाकी देश भी उस आग में झुलसे? सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक नागरिकता के सवाल पर हर सूरत में केवल और केवल समर्थन की ही उम्मीद करना और उम्मीद पूरी नहीं होने तक अड़े रहना भी ठीक नहीं है। वार्ताकारों का यह तर्क काफी वाजिब लगता है कि प्रदर्शन और सड़क एक साथ चलेगी तो शाहीन बाग देश के लिए एक मुसीबत नहीं, बल्कि एक मिसाल बन सकेगा।

मध्यस्थता की शुरुआत करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी अधिकारों और कर्त्तव्यों के बीच समन्वय को जरूरी बताया था। अदालत ने लोगों के धरना देने के मौलिक अधिकार को तो स्वीकार किया था, लेकिन यह भी कहा कि लोगों को सड़क पर चलने और अपनी दुकानें खोलने का भी अधिकार है क्योंकि अगर अपनी मांगों को लेकर हर व्यक्ति रास्ते पर उतरने लगेगा तो काफी मुश्किल होगी यानी सुप्रीम कोर्ट ने भी संकेतों में साफ कर दिया था कि लोकतंत्र विचार व्यक्त करने का अधिकार देता है, लेकिन उसकी भी सीमाएं हैं।

ऐसे में लगता यही है कि अगर यह मध्यस्थता सफल होती है, तो इससे धरने की जगह ही बदलेगी, धरना खत्म नहीं होगा जबकि कई कारणों से ऐसा होना जरूरी है। अब तक इस धरने को संविधान बचाने की लड़ाई बताकर या तो इसका महिमामंडन किया गया है, या फिर हिंदू-मुस्लिम की साझा लड़ाई बताकर इसका गुणगान ही हुआ है। लेकिन शाहीन बाग और इसकी तर्ज पर देश भर में चल रहे आंदोलन आम नागरिकों के आंदोलन नहीं कहे जा सकते। हकीकत में यह एक किस्म के डर और आशंका की अभिव्यक्ति है, जो निराधार भी हो सकती है।
असली डर तो उस प्रक्रिया को लेकर होना चाहिए, जिसके तहत यह आंदोलन धीरे-धीरे राजनीतिक रंग लेता गया है। सरकार से भरोसा मिल जाने के बावजूद नागरिकता छिन जाने के डर को बरकरार रखना तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। वो भी तब जबकि सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास केवल सरकारी नारा नहीं, बल्कि तेजी से जमीनी हकीकत बन रहा हो। इससे इस बात के भी पर्याप्त संकेत मिलते हैं कि प्रदर्शनकारियों में भरोसा बहाल करने की सरकार की कोशिशों में रोड़े अटकाए जा रहे हैं।  

पंच-परमेर के देश में मध्यस्थों की सार्थकता पर तब भी सवाल उठा था, जब मौजूदा सरकार ने कश्मीर के युवाओं में भरोसा बहाल करने की पहल की थी। बड़ी चुनौतियों से मुकाबले के बाद सरकार आखिरकार, पत्थरबाजी की घटनाएं रोकने में कामयाब हुई। दो दशकों से अशांति झेल रहा पूर्वोत्तर भी संवाद के माध्यम से ही शांति की राह पर लौटा है।

विवादों को सुलझाने के लिए भारत में मध्यस्थता वैसे भी नई बात नहीं है। पंचायत प्रणाली के मंच पर पहले गांव के बड़े-बुजुर्ग विवादों का निपटारा किया करते थे। जनजातीय समुदायों में तो आज भी इस तरह की मध्यस्थता चलन में है। अंग्रेजों के आने के बाद देश में ज्यूडिशियरी प्रणाली शुरू हुई जो आज तक चली आ रही है। लेकिन अब ज्यूडिशियरी में भी एक तरह का घमासान मचा हुआ है। हाल ही में जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिल्ली हाई कोर्ट में जो नाम भेजे गए थे, उन पर असहमति जताते हुए कॉलेजियम ने वो सभी नाम वापस सुप्रीम कोर्ट को भेज दिए। इसके बाद जिस तरह दिल्ली हाई कोर्ट के जज मुरलीधर का तबादला पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में किया गया, वह आज सुर्खियों में है। तबादले के विरोध में दिल्ली हाई कोर्ट का बार गुरु वार को हड़ताल पर चला गया। इसी तरह बॉम्बे हाई कोर्ट के दूसरे सबसे वरिष्ठ जज एससी धर्माधिकारी ने मेघालय हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाए जाने के विरोध में इस्तीफा दे दिया। अपने इस्तीफे में उन्होंने निजी और पारिवारिक कारणों का हवाला देते हुए कहा कि वो महाराष्ट्र से बाहर नहीं जाना चाहते। जस्टिस धर्माधिकारी के इस्तीफे से महाराष्ट्र बार के वकील भी नाराज बताए जा रहे हैं। ऐसे में सवाल है कि ट्रांसफर अगर एक रूटीन प्रक्रिया है, तो फिर इस पर इतना बवाल क्यों मचा है?

साल 2012 में मध्यस्थता पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि अक्सर विवादों का समाधान संबंधित व्यक्तियों में संप्रेषण की कमी या फिर अहम के कारण मुश्किल हो जाता है। ऐसे में मध्यस्थता का विषय बंटवारा करने का नहीं, बल्कि इस प्रक्रिया में शामिल सभी को विजयी होने का अहसास दिलाने का है। उम्मीद की जानी चाहिए कि शाहीन बाग समेत जहां कहीं भी विवाद के मुद्दे उलझे हैं, वहां मध्यस्थता की कोशिशें इसी भाव से परवान चढ़ेंगी और यह केवल सुलह की एक सड़क ही नहीं, बल्कि लाखों-करोड़ों दिलों को खोलने का भी काम करेंगी।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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