भारत की बढ़ी जिम्मेदारी

April 24, 2020

कोरोना के खिलाफ अब विश्व राजनीति तीसरे चरण में आ चुकी है। पहले चरण में इस महामारी से निपटने के लिए दुनिया भर में एकजुटता की कसमें खाई गई। धीरे-धीरे वैश्विक एकता का दायरा सरहदों में सिमटता गया और दूसरा चरण आते-आते कमोबेश हर देश अपनी लड़ाई अपने तरीके से अलग-अलग लड़ता दिख रहा है। तीसरे चरण की लड़ाई में भरोसे की यह खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है और दुनिया खेमों में बंटती जा रही है।

एक खेमा अमेरिका का है, तो दूसरा चीन का। इजराइल हमेशा की तरह अमेरिका के साथ है, जबकि चीन को रूस और सीरिया के साथ कुछ अन्य मिडिल ईस्ट देशों का साथ हासिल है। लेकिन यूरोप इस मामले में बंट गया है। अमेरिका और इजराइल आरोप लगा रहे हैं कि कोरोना चीन का जैविक हथियार है और वुहान की लैब में तैयार हुआ है। दूसरी ओर चीनी खेमा इसे ट्रेड वॉर के बाद चीन की अर्थव्यवस्था को चौपट करने के लिए रची गई अमेरिकी साजिश बता रहा है।

इसके लिए अमेरिका का पुराना रिकॉर्ड खंगाल दिया गया है। दुनिया को बताया जा रहा है कि पहले भी किस तरह एचआईवी से रूस, स्वाइन फ्लू से चीन और र्बड फ्लू से मिस्र को तबाह करने की कोशिशें हुई हैं। सीरिया इस लड़ाई में इबोला, जीका और एंथ्रेक्स जैसे वायरस का ‘तड़का’ लगाकर यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि अमेरिका पहले भी अपने विरोधियों को दबाने के लिए जैविक हथियारों का इस्तेमाल करता रहा है। मामला अब कोरोना से शिफ्ट होकर क्षेत्रीय दबदबे की ओर बढ़ गया लगता है।

वैसे भी गलतियों पर परदा डालने के लिए बलि का बकरा तलाशने की रवायत ना तो नई है और ना ही अस्वाभाविक। एक तरफ अमेरिका और यूरोप का दक्षिणपंथी वर्ग चीन को लगातार धमकाते हुए उसके माथे पर कोरोना फैलाने का कलंक चस्पा करने में जुटा है, तो अपना दामन साफ दिखाने में चीन भी अमेरिका को घेरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है। लेकिन इस सबके बावजूद चीन अपने ‘चालबाज चरित्र’ से दुनिया का ध्यान हटा नहीं पा रहा है। कोरोना के भुक्तभोगी ज्यादातर देश भले ही अभी खुलकर अमेरिका के साथ नहीं दिख रहे हों, लेकिन चीन की ओर शक की नजर से जरूर देख रहे हैं।

यूरोप का वर्ताव
ब्रिटेन का नजरिया अभी से सख्त दिखने लगा है। वहां यह मांग उठ रही है कि जिस तरह ‘पहले’ शीत युद्ध के शांतिपूर्ण दौर में रूस को लेकर कड़ी सावधानी बरती गई थी, वही रुख अब चीन के लिए भी जरूरी हो गया है। इटली भी अमेरिकी जांच की संभावना से पहले ही कोरोना को मानवता पर चीन का हमला बता रहा है। कई देश तो अपने यहां कोरोना से हुए नुकसान के लिए चीन से भरपाई की मांग तक कर रहे हैं। अमेरिकी कंजरवेटिव तो लगातार कह रहे हैं कि चीन ने पहले समस्या पैदा की और फिर उसे मिटाने में अपनी सफलता का प्रदशर्न कर अपनी छवि चमकाने की कोशिश कर रहा है। नाराज अमेरिका ने तो विश्व स्वास्थ्य संगठन को चंदा देना भी बंद कर दिया है क्योंकि उसे लगता है कि वो भी चीन का साथ दे रहा है। 

अमेरिका की नजर में इस बार चीन के अपराधों की लिस्ट लंबी ही नहीं, शर्मनाक भी है। उसने कोरोना का पता चलने के बाद इसे दुनिया से छुपाया, देरी से कदम उठाए, मरीजों के आंकड़ों में हेरा-फेरी की और फिर अमेरिका पर इसे फैलाने की तोहमत लगाई। पिछले दिनों चीन ने जिस तरह घरेलू मौत के आंकड़ों को रिवाइज किया है, उससे अमेरिका के आरोपों को बल भी मिला है। इसे लेकर अमेरिका के एक राज्य मिसौरी की अदालत में चीन के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हुआ है। हालांकि इसकी गंभीरता महज सांकेतिक दिखती है, क्योंकि इस अदालत का आदेश चीन पर कितना बंधनकारी होगा यह समझा जा सकता है।

लेकिन अमेरिका के लिए यूरोप का बर्ताव झटका देने वाला है। ब्रिटेन को छोड़ दें तो इटली, हंगरी और ग्रीस चीन की आलोचना के बावजूद उसके साथ खड़े दिख रहे हैं। जर्मनी और फ्रांस के बीच भी एक राय नहीं है, जबकि हॉलैंड अपने देश में चीन के भारी-भरकम निवेश के बोझ तले दबा हुआ है।

कच्चे तेल के मामले ने भी अमेरिका की फिसलन बढ़ा रखी है। अब यह साफ दिखने लगा है कि तेल के गिरते भाव का खेल कोई प्राइस वॉर नहीं, बल्कि अमेरिका के ‘प्राइड’ को चकनाचूर करने का गेम है। वेनेजुएला की राजनीति में अमेरिका के हस्तक्षेप की आड़ लेकर रूस पुराने दिनों का हिसाब बराबर कर रहा है। तेल का भाव 18 साल के न्यूनतम स्तर तक गिर गया है, जिससे अमेरिकी तेल कंपनियां कंगाली की कगार पर पहुंच गई हैं और कोरोना के साथ एक और मोर्चे पर अमेरिका की फजीहत हो रही है। 

वैश्विक संतुलन
इस सबके बीच मौका ताड़ते हुए चीन ‘मानवता’ की मदद के बहाने कोरोना से प्रभावित 100 से ज्यादा देशों में अपनी पहुंच बना चुका है। पारंपरिक रूप से यह भूमिका अब तक अमेरिका निभाता आया था जो इस बार लाचार है। इसलिए सवाल तो उठ ही गए हैं कि क्या जिम्मेदारियों के बोझ से अमेरिका अब थकने लगा है? क्या वैश्विक संतुलन का पलड़ा चीन की ओर झुकने लगा है? क्या चीन ने ‘बिग डैडी’ अमेरिका को उसकी जगह से हटाकर वो जमीन हथिया ली है?   

तमाम सवाल भले ही अभी अनुमान हों, लेकिन अमेरिका के लिए इतना भर भी खतरे की घंटी है। साल 1945 में सोवियत यूनियन के खिलाफ ट्रांस-अटलांटिक गठजोड़ तैयार करने में अमेरिका की एक आवाज पर पूरा यूरोप उसके पीछे आकर खड़ा हो गया था। लेकिन अब चैलेंज भी बदल गया है और चैलेंजर भी। आपस में जुड़ी दुनिया अब पहले से ज्यादा आजाद है और अमेरिका का रुतबा भी बीते दिनों की बात हो गई है। 

फिलहाल तो दोनों महाशक्तियों ने आपस में एक अस्थायी युद्ध विराम कर रखा है, जिसमें आग उगलने वाली जुबान को फिलहाल आराम दिया जा रहा है। लेकिन इतना तय है कि कोरोना का संकट खत्म होते ही इस युद्ध विराम की मियाद भी खत्म हो जाएगी। तब दोनों ओर से मन में दबा आक्रोश खुलकर व्यक्त होगा और अगर जल्द बीच-बचाव की पहल नहीं हुई तो इससे पूरब और पश्चिम के बीच एक खाई पैदा हो सकती है, जो दूसरे शीत युद्ध की शक्ल में लंबे समय तक स्थायी भी बन सकती है।

ऐसे हालात भारत के लिए भी चुनौती लेकर आएंगे। यह सोच तो ठीक लगती है कि चीन पर दुनिया का भरोसा जितना कम होगा, हमारे अवसर उतने ही बढ़ेंगे। बाजार और मानव श्रम के आकार के मामले में आज केवल भारत ही चीन को टक्कर दे सकता है। लेकिन यह इस बात से भी तय होगा कि बदले हालात में हमारे कदम किस ओर बढ़ते हैं? अमेरिका के साथ अगर भारत के संबंध इस समय सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ दौर में हैं, तो चीन के साथ हमारा आपसी लेन-देन भी नई ऊंचाइयां छू रहा है। कारोबार के मामले में भी अमेरिका और चीन हमारे सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार हैं।

इस महीने की शुरुआत में ही भारत और चीन के राजनयिक संबंधों के 70 साल पूरे हुए हैं। योजना तो यह थी कि दोनों देश इस मौके पर 70 अलग-अलग क्षेत्रों में नये कार्यक्रमों की शुरुआत करेंगे, लेकिन कोरोना आड़े आ गया। बेशक, यह योजना आगे के लिए टल गई हो, लेकिन इससे यह तो समझ आता ही है कि दोनों देश कड़वी यादों से आगे बढ़कर ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ की भावना को एक मौका और देना चाहते हैं। इसलिए ज्यादा संभावना इस बात की है कि रूस-अमेरिका शीत युद्ध के दौर वाली गुट-निरपेक्षता की पुरानी नीति को भारत एक बार फिर अमल में लाए।



हमारे राष्ट्रीय हितों के साथ-साथ पूरी दुनिया के लिए भी भारत की यह रणनीति मददगार साबित हो सकती है, क्योंकि इस बारे में कोई दो-राय नहीं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और चीनी राष्ट्रपति शी जिनिपंग के साथ किसी एक विश्व नेता के सबसे करीबी संबंध हैं, तो वो हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही हैं। विश्व अशांति के दौर में यह करीबी दुनिया के बड़े काम ही नहीं आ सकती है, बल्कि दुनिया को बड़े खतरे से बचा भी सकती है।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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