जिम्मेदारियां बांटने का अवसर

May 10, 2020

कोरोना के खिलाफ तीसरे लॉक-डाउन के दो हफ्ते का ‘सुरक्षा कवच’ आज अपनी आधी मियाद पूरी कर रहा है। इस पहले हफ्ते में दो घटनाएं प्रमुखता से सामने आई हैं।

पहली कोरोना मरीजों की संख्या में चिंताजनक इजाफा और दूसरी प्रवासी मजदूरों का व्यापक पलायन। दोनों घटनाएं इस तथ्य के बावजूद सामने आई हैं कि सरकार इन दोनों मोर्चों को दुरूस्त रखने के लिए पूरी कर्मठता के साथ जी-तोड़ मेहनत कर रही है।

दोनों घटनाएं इस लिहाज से अहम हो जाती हैं कि एक का सीधा असर दूसरे पर पड़ता है। कोरोना से हालात जितने बिगड़ेंगे, गरीबों और मजदूरों की जिंदगी में दुारियां भी उसी अनुपात में बढ़ेंगी। इसी ‘रिश्ते’ की अहमियत को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने काफी पहले ही भांप लिया था। पिछले दो लॉक-डाउन में हमने प्रधानमंत्री को कई मौकों पर ये कहते सुना कि इस नुकसान को जितना हो सके सीमित रखना उनकी प्राथमिक चिंताओं में शुमार है। दरअसल, यह वर्ग उस असंगठित क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा है जिसकी हमारी अर्थव्यवस्था में खासी अहमियत है। असंगठित क्षेत्र में वे लोग आते हैं जो या तो ठेके पर काम करते हैं या फिर मजदूरी करके रोज की दिहाड़ी से अपना गुजारा करते हैं। यह क्षेत्र कितना बड़ा है इसका ठीक-ठीक अंदाज लगाना सरकारों के लिए हर दौर में चुनौती भरा रहा है। पिछले साल आई इकोनॉमिक सर्वे की रिपोर्ट में बताया गया है कि देश की कुल वर्कफोर्स 45 करोड़ है और इसका 93 फीसद हिस्सा यानी 41.85 करोड़ असंगठित क्षेत्र का है। वैसे 45 फीसद हिस्से के साथ कृषि क्षेत्र में देश का सबसे बड़ा असंगठित वर्ग काम करता है, लेकिन इस क्षेत्र में प्रवासी मजदूरों का हिस्सा भी 20 फीसद यानी करीब 9 करोड़ लोगों का है। कोरोना महामारी से पैदा हुई अद्वितीय परिस्थिति ने इन मजदूरों के सामने जीवन-मरण का संकट पैदा कर दिया है।

हालांकि परीक्षा की इस घड़ी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की संवेदनशील सोच ने इस तबके के जख्मों पर मरहम लगाने का काम किया है। सरकार ने इस दिशा में कई कामयाब पहल भी की है। पीएम गरीब कल्याण पैकेज के तहत मोदी सरकार ने गरीबों की मदद के लिए 1.7 लाख करोड़ रुपये जारी किए हैं। करीब 40 करोड़ लाभार्थियों तक इसका फायदा पहुंच भी चुका है।

मनरेगा के तहत दिहाड़ी मजदूरी को 20 रुपये बढ़ाया गया है।
80 करोड़ लोगों को तीन महीने का अतिरिक्त राशन उपलब्ध करवाया जा रहा है।
20.40 करोड़ महिलाओं के जन-धन खातों में तीन महीने के हिसाब से 1,500 रुपए ट्रांसफर किए जा रहे हैं।
8 करोड़ परिवारों को उज्ज्वला योजना के तहत तीन महीने तक मुफ्त गैस सिलेंडर की सुविधा मिल रही है।
8.7 करोड़ किसानों को पहले से ही प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत दो हजार सहारा न्यूज नेटवर्क के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं एडिटर इन चीफ दिए जा रहे हैं।

इन कोरोड़ों लाभार्थियों में बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र के उन मजदूरों का भी है जिनके लिए कोरोना काल में यह मदद संजीवनी साबित हो रही है। शहरों में रोजगार छिन जाने के बावजूद यह वर्ग इसी मदद से मिले हौसले के दम पर अपने-अपने घर की ओर प्रवास कर रहा है। इस उम्मीद के साथ कि शायद अबकी बार जीवन-यापन के लिए शहरों की विषम परिस्थिति में बार-बार लौटने की उसकी मजबूरी को तिलांजलि मिल जाए और दाना-पानी की व्यवस्था उनके अपने घर के करीब ही हो जाए।  लेकिन क्या ऐसा संभव है? यदि नहीं है, तो अब होना चाहिए। आखिर केंद्र की सरकार कब तक अकेले इस जिम्मेदारी को उठाती रहेगी? राज्यों को केंद्र का भार हल्का करने के लिए आगे क्यों नहीं आना चाहिए? आखिर असंगठित क्षेत्र के यह मजदूर जब प्रवास करते हैं तो वो एक तरह के देशी एनआरआई बन जाते हैं, जिस राज्य में वो काम करते हैं वहां की इकोनॉमी की मदद तो करते ही हैं, साथ ही कमाई से बचाया हुआ जो पैसा वो अपने परिवार को भेजते हैं उससे उनके गृह राज्य की अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलती है। इसके बावजूद ना तो देश और ना ही राज्यों की योजनाओं में इनकी सुरक्षा का कोई ठोस प्रावधान दिखता है। असंगठित होने की वजह से इनमें से 49.6 फीसद लोग तो किसी सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजना का हिस्सा भी नहीं हैं। ऐसे में आपदा की स्थिति में वो पूरी तरह केंद्र सरकार के आसरे रह जाते हैं। तो क्या कोरोना इस रीति को बदल देने का अवसर लेकर आया है?

ऐसा बिल्कुल हो सकता है। सामाजिक सुरक्षा की तलाश में असंगठित क्षेत्र का बड़ा हिस्सा घर लौट चुका है, वो जल्द वापसी करेगा इसके आसार भी फिलहाल कम हैं। हो सकता है कि इनमें से कई लोग तो वापसी का विकल्प बंद करके ही घर लौटे हों। अगर यह मजदूर काम पर नहीं लौटेंगे तो अनुमति मिलने के बाद भी कारखाने लंबे समय तक ठप पड़े रहेंगे जिससे ना तो उत्पादन का पहिया आगे बढ़ेगा और ना अर्थव्यवस्था का चक्का घूमेगा। ऐसे में केंद्र सरकार कितने भी बड़े राहत पैकेज का ऐलान कर दे, उसका जमीनी असर सीमित ही रहेगा, लेकिन अगर राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर पर पहल करें, तो ना केवल हालात बदल सकते हैं बल्कि एक ऐसी नई शुरु आत भी हो सकती है, जिसमें आर्थिक गतिविधियां कुछ क्षेत्रों में सीमित रहने के बजाय देश के कई अंदरूनी हिस्सों तक पहुंच सकती हैं। इससे भविष्य में कोरोना जैसी महामारी के दौरान होने वाले आर्थिक नुकसान को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। तो राज्य सरकारें इस दिशा में क्या कर सकती हैं? कुछ राज्यों ने इस ओर पहल की है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार बाहर से आए मजदूरों और कामगारों का स्किल डाटा तैयार करवा रही है ताकि राज्य के भीतर ही उनके लिए काम के अवसर तलाशे जा सकें। शुरु आती तौर पर इन्हें एक जिला, एक उत्पाद योजना से जोड़ने के संकेत मिले हैं। झारखंड सरकार भी टाटा स्टील के साथ मिलकर ऐसे मजदूरों को स्थानीय रोजगार से जोड़ने का कार्यक्रम तैयार कर रही है। केरल सरकार भी इस दिशा में बड़े पैकेज का ऐलान कर चुकी है। लेकिन केवल दो-तीन राज्यों के आगे बढ़ने से यह समस्या नहीं सुलझेगी। इसके लिए देश के हर राज्य को अपनी-अपनी दक्षता और स्थानीय संभावनाओं में संतुलन बनाते हुए पहल करनी होगी।

सबसे पहले तो राज्यों को घर लौटे श्रमिकों की फौरी जरूरतों को पूरा करने के लिए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर पर विचार करना चाहिए। इसके लिए राज्य केंद्र की जन-धन योजना की ही तरह राज्य स्तरीय योजना शुरू कर सकते हैं।
बाहर से लौटे श्रमिकों की बड़ी संख्या को मनरेगा के तहत विकास कार्यों में समाहित किया जा सकता है।
एमएसएमई के तहत स्थानीय उद्योगों में रोजगार के अवसर बढ़ाए जा सकते हैं।
ग्रामीण स्तर पर ही कुछ छोटे उद्योगों या बंद पड़ी उत्पादन इकाइयों को उपयोगिता के आधार पर दोबारा शुरू किया जा सकता है।
स्थानीय स्तर पर स्वरोजगार को प्रेरित करने के लिए नई ऋण योजना पर काम किया जा सकता है।

 बेशक असंगठित क्षेत्र से जुड़े लाखों-करोड़ों श्रमिकों को उनके घर के करीब रोजगार देने के लिहाज से यह कदम काफी अपर्याप्त होंगे, लेकिन इससे एक शुरु आत तो होगी। सफर कितना लंबा होगा, यह फिलहाल कोई तय नहीं कर सकता। लेकिन इतनी उम्मीद जरूर की जा सकती है कि इस सफर पर चलकर हमारे यही लाखों-करोड़ों मजदूर मजबूर नहीं बल्कि मजबूत होकर राष्ट्र निर्माण में योगदान दे सकेंगे।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

News In Pics