चीन की ‘आग’ से बढ़ रहा विवाद

September 13, 2020

गलवान घाटी से आखिरकार ‘युद्ध विराम’ की खबर आ ही गई। गुरुवार को विदेश मंत्री एस जयशंकर की अपने चीनी समकक्ष से मुलाकात के बाद दोनों देश एलएसी पर चल रहे तनाव को कम करने के लिए सहमत हो गए।

हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह सहमति केवल सैद्धांतिक है या फिर इसका कोई रोडमैप भी तैयार किया गया है। इस फर्क को समझना इसलिए जरूरी है कि सैद्धांतिक सहमति की कैसी ‘दुर्गति’ होती है, उसे हमने हाल के दिनों में कई अवसरों पर देखा है। बताया जा रहा है कि इस सहमति का आधार बना है एक पांच-सूत्रीय फॉर्मूला, जिसके अधिकतर प्रावधान दिलचस्प रूप से छह दशक पहले हुए पंचशील समझौते से काफी मेल खाते हैं। आशय यह है कि इसमें ऐसा कुछ नया नहीं है, जो द्विपक्षीय इतिहास को बदल सके। वैसे इतिहास का एक स्याह पक्ष यह भी है कि 1954 के उस समझौते पर चीन का धीरज केवल आठ साल में ही टूट गया और 1962 में उसने धोखे से हमारी पीठ में ही खंजर घोंप दिया।

‘62 की क्या बात करें, पिछले साल ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनिपंग की मुलाकात के बाद संकल्प लिया गया था कि दोनों देशों के आपसी मतभेदों को किसी नए विवाद में बदलने नहीं दिया जाएगा। इतना पीछे भी जाने की जरूरत नहीं है। दो महीने पहले ही हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल ने चीन के इन्हीं विदेश मंत्री के साथ एक आपात बैठक की थी। तब भी दोनों ओर से सीमा पर तनाव कम होने का भरोसा दिलाया गया था, लेकिन हुआ यह कि अब रक्षामंत्री से लेकर विदेश मंत्री तक को मोर्चा संभालना पड़ा है। शायद यह पुराने तजुर्बे का ही असर है कि चार महीने से चले आ रहे विवाद में सुलह की नई खिड़की खुलने के बावजूद कोई इसे आपसी रिश्तों में ताजा हवा के झोंके की तरह नहीं देख रहा है। वैसे भी इसमें हमारे नजरिए से महत्त्वपूर्ण-अप्रैल महीने से पहले वाली यथास्थिति को बहाल करने का कोई जिक्र नहीं है। तो क्या इसका मतलब यह लगाया जाए कि दोनों ओर से जो सैनिक जहां बैठे हैं, वो फिलहाल वहीं जमे रहेंगे। जिन बातों पर सहमति बनी भी है उसे लेकर कोई तय समय सीमा भी दिखाई नहीं पड़ रही है। तो ऐसे में विवाद कैसे और कब सुलझेगा, यह तय नहीं है। ऐसे में इस बैठक से हमें ऐसा क्या हासिल हुआ, जो रक्षामंत्री की बैठक में छूट गया था? जिस समय मास्को में दोनों विदेश मंत्री मिल रहे थे, तभी एलएसी पर ब्रिगेडियर स्तर की बातचीत भी हुई।

लेफ्टिनेंट जनरल या कोर कमांडर स्तर पर भी कई दौर की बातचीत हो चुकी है, लेकिन विवाद जस-का-तस है। भारत के लिहाज से हम इसे एक कूटनीतिक जीत जरूर कह सकते हैं कि हमारे सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व की सतत कोशिशों से हम लगातार आक्रामक बने हुए चीन को बातचीत की टेबल पर लाने में कामयाब रहे हैं। रक्षामंत्री वाली मुलाकात के मामले में तो पहल खुद चीन की तरफ से ही हुई थी, लेकिन इन सब बातों की अहमियत इस बात पर आकर सीमित हो जाती है कि चीन बार-बार जुबान देने के बावजूद अपने सैनिकों को पीछे नहीं हटा रहा है। पीएलए एक मोर्चा बंद करती है, उससे पहले दूसरा नया मोर्चो खोल लेती है। इस सबके बीच सुलह कैसे होगी, यह बड़ा सवाल है। तमाम स्तर की बातचीत के बाद अब आखिरी रास्ता दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों की मुलाकात का ही बचा है। चीन के सरकारी मुखपत्र ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने विदेश मंत्रियों की बैठक पर अपनी रिपोर्ट में इसका इशारा भी किया है कि उनके राष्ट्रपति शी जिनपिंग और हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ बैठे बगैर यह विवाद खत्म नहीं होगा। तनाव बरकरार रखने के पीछे चीन की मंशा बेहद साफ है। दरअसल, चीन इस वक्त न केवल अपनी सीमाओं का विस्तार कर रहा है, बल्कि इस क्षेत्र में अपने सैन्य और आर्थिक दबदबे को बढ़ाने की भी साजिश रच रहा है। दक्षिण चीन सागर में उसकी आक्रामक गतिविधियां और अमेरिका और जापान के साथ विवाद इसकी एक बानगी भर है, लेकिन इस सबके बीच भारत का अमेरिका के करीब जाना और ‘हाउडी मोदी’ और ‘नमस्ते ट्रंप’ जैसे आयोजनों ने चीन की सोच में भारत को लेकर खोट को बढ़ा दिया है। चीन भारत को अपने पड़ोस में अमेरिका के प्रॉक्सी की नजर से देखता है।

हिंद महासागर में हाल में अमेरिका के साथ हुए भारत के उच्चस्तरीय नौसैनिक अभ्यास को भी चीन ने खुद के लिए चुनौती समझा है। दरअसल, हिंद महासागर का चीन के लिए रणनीतिक के साथ ही बड़ा कारोबारी महत्त्व भी है। चीन की 80 फीसद तेल की जरूरत मलक्का की खाड़ी के रास्ते से पूरी होती है, जो दक्षिण चीन सागर को हिंद महासागर से जोड़ती है। चीन चाहता है कि यह मार्ग हमेशा खुला रहे ताकि इस क्षेत्र में उसकी गतिविधियां निर्बाध रूप से जारी रहें, लेकिन रणनीतिक जरूरत को देखते हुए भारत जब चाहे, तब इस क्षेत्र में उसकी आवाजाही में अड़ंगा डाल सकता है।

जाहिर तौर पर ऐसे हालात में भारत-अमेरिका के संयुक्त नौसेनिक अभ्यास को लेकर चीन में घबराहट है। इसलिए इस आशंका को भी खारिज नहीं किया जा सकता कि एलएसी पर झगड़ा बढ़ा तो समुद्र में भी आग लग सकती है। गलवान का घटनाक्रम पिछले विवादों से इस मायने में भी अलग है कि यह किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि पूर्वी लद्दाख की सीमा पर कई मोचरे तक फैला हुआ है। इसके विस्तार को देखकर यह समझ आता है कि यह चौकियों पर तैनात सैनिकों की सामान्य झड़प नहीं, बल्कि चीनी सरकार में उच्च स्तर पर बनाई गई योजना का हिस्सा है। इसलिए उच्च स्तर से हरी झंडी नहीं मिलने तक विवाद भी सुलगता रहेगा। इसकी तमाम वजहों में एक वजह पिछले साल अनुच्छेद 370 हटाने का भारत सरकार को वो फैसला भी है, जिसने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करते हुए उसे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदल दिया है। भारत के इस फैसले से एलएसी पर अपनी ताकत बढ़ाने की चीन की योजनाओं को झटका लगा है, जिसका नतीजा पूर्वी लद्दाख की सीमा पर उसकी बढ़ी हुई आक्रामकता में दिखता है। दरअसल, भारत दरबुक-श्योक और दौलतबेग-ओल्डी को जोड़ने के लिए जो फीडर रोड बना रहा है, उसने चीन की नींद उड़ा रखी है। माना जा रहा है कि इस सड़क के बन जाने से भारत के लिए न केवल एलएसी पर तैनात अपने सैनिकों तक रसद और सैन्य सामग्री पहुंचाना आसान हो जाएगा, बल्कि इससे भारत को गलवान घाटी और अक्साई चिन में रणनीतिक बढ़त भी हासिल हो जाएगी। पीओके से सटा यह इलाका चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर के भी काफी करीब है। चीन को अंदेशा है कि इस इलाके तक भारत की पहुंच बन जाने से इस कॉरिडोर में उसे अपनी आर्थिक गतिविधियों को लेकर समझौतावादी रु ख अपनाना पड़ सकता है, जिससे उसके महत्त्वाकांक्षी ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव’ को झटका लग सकता है। इसके साथ ही 1962 में हथियाए गए अक्साई चिन के भविष्य को लेकर भी चीन में घबराहट है।

हालांकि दांव पर इतना कुछ लगने के बावजूद इन आशंकाओं में दम नहीं दिखता कि विवाद युद्ध की शक्ल लेगा। इसका एक पहलू और भी है। हांगकांग और अमेरिका से मिल रही आर्थिक चुनौतियों के मसले को सुलझाने के मुकाबले एलएसी पर तनाव को बनाए रखना चीन को ज्यादा फायदेमंद सौदा दिख रहा है। वैसे भी अक्टूबर में चीन में सेंट्रल कमेटी की बैठक होनी है। एलएसी पर तनाव की आड़ में जिनपिंग देश में राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काकर अपनी स्थिति मजबूत बनाए रखना चाहेंगे, लेकिन वो युद्ध का जोखिम किसी भी कीमत पर नहीं  उठाना चाहेंगे, क्योंकि जंग के मैदान में जरा भी ऊंच-नीच उनकी कुर्सी को हिला सकती है। इस बीच अगर प्रधानमंत्री मोदी से उनकी मुलाकात होती है और सुलह की कोई सड़क तैयार होती है, तो यह जिनपिंग के लिए अपनी जनता के साथ ही दुनिया के सामने भी अपनी छबि चमकाने का बेहतरीन मौका बन सकता है।
 


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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