बदलती दुनिया बदलेगा यूएनओ!

October 3, 2020

संयुक्त राष्ट्र संघ को दुनिया की सबसे बड़ी पंचायत कहा जाता है। वैश्विक संगठनों के लिहाज से यह दुनिया की सबसे ‘उम्रदराज’ संस्था भी है। कोई भी दूसरा अंतरराष्ट्रीय संगठन, संयुक्त राष्ट्र की तरह अपने ‘जीवन के 75 बसंत’ नहीं देख पाया है।

दूसरे संगठनों के लिए संयुक्त राष्ट्र की ‘उपलब्धि’ बेशक, निराशा की बात हो सकती है, लेकिन हकीकत यह भी है कि अब उपलब्धि के नाम पर खुद संयुक्त राष्ट्र भी ‘निराशा का खजाना’ ही साबित हो रहा है। प्लेटिनम जुबली मना रही पंचायत अब खुद से की जाने वाली अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पा रही। इसीलिए अब इसके स्वरूप में बदलाव की मांग जोर-शोर से उठने लगी है। संयुक्त राष्ट्र महासभा के वार्षिक सत्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबोधन ने इस मांग को नई धार, नई रफ्तार देने का काम किया है।  कोरोना काल में प्रधानमंत्री ने वर्चुअल तरीके से महासभा को संबोधित किया और दुनिया को ‘पंचायत के पुनरूद्धार’ की जरूरत समझाई। संयोग से जिस कोरोना की वजह से संयुक्त राष्ट्र को अपने सालाना जलसे का स्वरूप बदलना पड़ा, वही कोरोना उसके कलेवर में बदलाव की मांग का ‘दूत’ बना है। पिछले 8-9 महीने से समूची मानवता कोरोना महामारी से जूझ रही है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र के सबसे बड़े समर्थक भी उसके रिस्पॉन्स से निराश हैं। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका में बदलाव की मांग से प्रधानमंत्री मोदी ने जैसे दुनिया के ‘मन की बात’ को ही जुबान दी है।
 
फिर मांग बिल्कुल वाजिब भी है। 75 साल पहले जब संयुक्त राष्ट्र की अवधारणा साकार हुई थी, तब मुद्दे कुछ और थे, जरूरतें अलग थीं। अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई थी और उपनिवेशवाद का खात्मा हो रहा था। दूसरे विश्व युद्ध में विजय का वरण करने वाले मित्र राष्ट्र ‘लहूलुहान’ दुनिया का नया चेहरा तराशने में लगे थे। इसलिए  अचरज की बात नहीं है कि ऐसे माहौल में संयुक्त राष्ट्र का जो चार्टर तैयार हुआ वो विजेता देशों के वर्चस्व का दस्तावेज बनकर रह गया। जनरल असेंबली में बहुसंख्यकों की हिस्सेदारी की आड़ में सुरक्षा परिषद में गैर-बराबरी की साजिश को सैद्धांतिक जामा पहनाया गया। इसीलिए आमसभा तो सभी देशों के लिए खोल दी गई, लेकिन बड़े फैसलों का अधिकार वीटो से लैस पांच शक्तिशाली ‘मित्र-देशों’ वाली सुरक्षा परिषद तक सीमित कर दिया गया।

जेबी संस्था वाली पहचान
सात दशक के बाद संयुक्त राष्ट्र आज भी पांच देशों की जेबी संस्था वाली उस पहचान को सलीब की तरह अपनी गर्दन पर ढो रहा है। इसका असर उसकी कार्यप्रणाली पर साफ दिखाई देता है जिसमें छोटे और कमजोर देशों के हितों की ज्यादातर अनदेखी हुई है। बेशक, इस दौरान संयुक्त राष्ट्र के खाते में गरीबी, भुखमरी, शरणार्थियों, मानवाधिकार और जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में किए गए कई अच्छे काम जुड़े हैं, लेकिन विफलताओं की सूची इतनी लंबी है कि उसने संयुक्त राष्ट्र को गुलदस्ता संगठन बनाकर रख दिया है। फिलिस्तीन-इजरायल के संघर्ष से लेकर हिंद-चीन के मुक्ति संग्राम में अमेरिका और रूस के दखल के कारण संयुक्त राष्ट्र कोई सार्थक हस्तक्षेप नहीं कर पाया। पाकिस्तान के साथ हमारे विवाद को सुलझाने में भी संयुक्त राष्ट्र कोई पहल नहीं कर पाया है। जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन के मुखिया मसूद अजहर पर प्रतिबंध लगाने के प्रस्ताव को चीन ने अपनी वीटो वाली ताकत से 9 साल तक रोके रखा, लेकिन इसके खतरे को जानते-बूझते भी संयुक्त राष्ट्र चीन पर कोई दबाव नहीं बना पाया। रवांडा, डारफर और म्यांमार के नरसंहार हो या 2003 में इराक पर अमेरिका की चढ़ाई या फिर इसके एक दशक बाद क्रीमिया पर रूस के कब्जे की कार्रवाई, संयुक्त राष्ट्र इनमें से किसी भी घटना को रोकने में नाकाम रहा है। सीरिया, लेबनान, अफगानिस्तान में तो उसकी हालत लाचार दशर्क जैसी हो गई थी।
 
सच तो यह है कि सुरक्षा परिषद ने साल 1991 के खाड़ी युद्ध के बाद पिछले तीन दशकों में कोई बड़ा अंतरराष्ट्रीय मसला नहीं सुलझाया है। सुरक्षा परिषद केवल अमेरिका, रूस और चीन के बीच ताकत दिखाने का ऐसा अखाड़ा बन कर रह गई है, जहां तीनों देश वीटो के दम पर एक दूसरे को नीचा दिखाने में जुटे रहते हैं। इन्हीं सबके चलते सुरक्षा परिषद में 1993 से ही सुधार की मांग उठ रही है। साल 1945 में जब ‘वी द पीपुल’ के नाम पर संयुक्त राष्ट्र का चार्टर तैयार हुआ था, तब से दुनिया की आबादी आज तीन गुना हो चुकी है। तब सुरक्षा परिषद में 5 स्थायी और 6 अस्थायी सदस्य देशों के अलावा कुल 51 सदस्य देश शामिल थे यानी हर पांच सदस्य देशों पर एक परिषद सदस्य देश होता था। इसी तरह जनरल असेंबली के 10 देशों पर परिषद का एक स्थाई देश हुआ करता था। आज जनरल असेंबली की सदस्यता भी पांच गुना तक बढ़ गई है। बेशक, सुरक्षा परिषद में इसी अनुपात में सदस्यों की संख्या बढ़ाना संभव नहीं है, लेकिन जिस तरह दुनिया अब बहुध्रुवीय हो गई है, उसे देखते हुए और संयुक्त राष्ट्र को ज्यादा आवाज सुनने वाला बहुमुखी मंच बनाने के लिए इस संख्या में इजाफा जरूरी हो गया है। यह क्या कम हैरानी की बात है कि आज सुरक्षा परिषद का 75 फीसद काम अफ्रीका से जुड़ा है, लेकिन इसमें अफ्रीकन महाद्वीप का प्रतिनिधित्व करने वाला देश शामिल नहीं है।  दुनिया के कई देशों की ओर से बनाए जा रहे छोटे-छोटे समूह भी एक तरह से सुरक्षा परिषद की निराशाजनक भूमिका पर टिप्पणी ही हैं। इनमें सबसे प्रमुख भारत, ब्राजील, जर्मनी और जापान से मिलकर बना जी-4 है जिसकी नींव ही सुरक्षा परिषद के बुनियादी ढांचे में बदलाव को लेकर रखी गई है। इसी तरह इटली की अगुवाई में ‘यूनाइटिंग फॉर कन्सेंसस’, एशिया-अफ्रीका-लैटिन अमेरिका के 42 देशों वाला ‘एल-69 ग्रुप’, सिंगापुर-स्वीट्जरलैंड-कोस्टारिका का समूह ‘स्मॉल 5’ है जो सुरक्षा परिषद में बदलाव की मांग कर रहे हैं।   

स्थायी सीट का सपना
खासकर भारत समेत जी-4 में शामिल दूसरे देशों को सुरक्षा परिषद में शामिल किए बिना इसकी प्रासंगिकता की कल्पना भी अधूरी लगती है। सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट हासिल करने का भारत का सपना संयुक्त राष्ट्र की नींव पड़ने जितना ही पुराना है। महात्मा गांधी मानते थे कि अविभाजित भारत को वीटो की ताकत रखने वाले देश की तरह सुरक्षा परिषद का हिस्सा बनना चाहिए। वैसे भी जिस संगठन को बनाने और उसके लक्ष्य को साधने में भारत का कदम-कदम पर योगदान रहा हो, उसकी निर्णय-प्रक्रिया से भारत को इतने लंबे समय तक बाहर रखना कहीं से तर्कसंगत नहीं लगता। ऐसे कई तथ्य हैं जो सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के दावे को मजबूत बनाते हैं। भारत में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जनसंख्या में हमारा नम्बर दूसरा है और दुनिया की 18 फीसद आबादी भारत में रहती है। समृद्धि के लिहाज से वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारी खास हिस्सेदारी है, तो शांति के मोर्चे पर संयुक्त राष्ट्र के मिशन में भारत का योगदान तीसरे नम्बर पर आता है। इस मिशन में सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी देशों के जितने सैनिक शामिल हैं, उनसे कहीं ज्यादा सैनिक अकेले भारत के हैं। ऐसे आत्मनिर्भर और मानवता को सहेजने वाले भारत की दावेदारी को नकारना संयुक्त राष्ट्र का ही दुर्भाग्य कहा जा सकता है। आठवीं बार भी सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य बनाने से इसकी भरपाई नहीं हो सकती।  जी-4 में शामिल दूसरे देशों के साथ भी संयुक्त राष्ट्र का यही बर्ताव रहा है। जापान संयुक्त राष्ट्र के बजट में दूसरा सबसे बड़ा हिस्सेदार है, जबकि जर्मनी का नम्बर तीसरा है। ब्राजील बड़े क्षेत्रफल के साथ ही आबादी और अर्थव्यवस्था के मामले में भी लैटिन अमेरिका का प्रतिनिधि राष्ट्र है। इसके बावजूद सुरक्षा परिषद में इनकी दावेदारी को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया।

बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र को इस जड़ता से मुक्त करने का बीड़ा अब प्रधानमंत्री मोदी ने उठाया है। साफ शब्दों में कहा है कि सब कुछ बदल जाए और संयुक्त राष्ट्र नहीं बदलेगा वाली नीति नहीं चल पाएगी। दुनिया भर से इसके समर्थन में जिस तरह आवाजें उठी हैं, उन्हें दबाना अब 75 पार कर चुके संयुक्त राष्ट्र के लिए आसान नहीं होगा। बदलती दुनिया की बदलती जरूरत के हिसाब से संयुक्त राष्ट्र को बदलना ही होगा। संयुक्त राष्ट्र की 75वीं वषर्गांठ पर दुनिया यही उम्मीद कर सकती है कि उसके गरिमामय इतिहास का भविष्य भी गौरवशाली होगा।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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