..ताकि जारी रहे संवाद का सिलसिला

February 7, 2021

किसान आंदोलन को आज 75 दिन पूरे हो रहे हैं। देश में अब तक हुए किसान आंदोलनों के लिहाज से यह विरोध प्रदर्शन अव्वल पायदान पर पहुंचा हो या नहीं, इसे लेकर हो रही चर्चा यकीनन पिछले किसी भी आंदोलन से ज्यादा है।

हालांकि यह चर्चा भी आंदोलन को किसी मंजिल तक पहुंचने का जरिया नहीं बन पा रही है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि किसान आंदोलन पर हर कोई बोल रहा है, जिन दो पक्षों को इस मसले को सुलझाना है वो भी खूब बोल रहे हैं, लेकिन अलग-अलग बोल रहे हैं, आमने-सामने बैठ कर बोलने से ‘न जाने क्यों’ कतरा रहे हैं?

इस आंदोलन के दो पक्ष हैं सरकार और किसान। दोनों के बीच पिछली बातचीत 22 जनवरी को हुई थी। यानी दोनों पक्षों को एक छत के नीचे बैठ कर संवाद किए पूरा एक पखवाड़ा बीत चुका है। हद तो यह है कि प्रधानमंत्री के ‘एक फोन कॉल दूर वाले ऑफर’ को भी नौ दिन गुजर गए हैं, लेकिन बात ‘अढ़ाई कोस’ तो दूर, एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाई है, लेकिन इस खामोशी का यह मतलब नहीं कि चारों ओर शांति है। इसी ‘संवादहीनता’ के बीच लाल किले की हिंसा और उसके बाद देश भर में उपजा लोगों का आक्रोश, फिर आंदोलन की अगुवाई कर रहे किसान नेता राकेश टिकैत की आंखों से बहे आंसू और उससे उठी सहानुभूति की लहर, सड़कों पर किसानों की ‘कील’बंदी, संसद में सरकार की घेराबंदी, गांव-गांव में महापंचायत और टूलकिट कांड जैसी घटनाओं का खूब शोर भी सुना गया है।

रिहाना और ग्रेटा थनबर्ग जैसी अंतरराष्ट्रीय सेलेब्रिटी का इस मामले में दखल देना तो खास तौर पर आपत्तिजनक है। यह मसला भारत की आत्मा से जुड़ा है और एक भारतीय के अलावा किसी और का इस मामले में बोलना मंजूर नहीं किया जा सकता। हालांकि यह जांच का विषय है, लेकिन ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट के साथ अटैच ‘टूलकिट’ प्रथमदृष्टया भारत की छवि को बदनाम करने की अंतर्राष्ट्रीय साजिश का हिस्सा दिखता है। इसकी निंदा करने में फिल्म और खेल जगत के सितारों ने आगे आकर इस मामले में देश की एकजुटता ही दिखाई है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र के दखल को खारिज करना इतना आसान नहीं होगा। संयुक्त राष्ट्र ने सभी के मानवाधिकारों का सम्मान करते हुए न्यायसंगत समाधान निकालने की अपील की है।

शायद यही इस मसले की सभी बड़ी समस्या भी है। बेशक किसान आंदोलन अब पंजाब-हरियाणा का आंदोलन नहीं रहा। उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र के साथ-साथ मध्य प्रदेश और कर्नाटक समेत दक्षिण के कुछ राज्यों में भी इसका विस्तार हुआ है, लेकिन अगर यह आंदोलन एक राज्य का आंदोलन नहीं है, तो अभी यह राष्ट्रव्यापी आंदोलन भी नहीं पाया है। सरकार की दलील है कि नये कानूनों के जिन प्रावधानों पर आंदोलन कर रहे किसान संगठनों को आपत्ति है, उसे देश के बाकी हिस्सों के किसान अपने जीवन स्तर में गुणात्मक सुधार के उसी जरिए के तौर पर ले रहे हैं, जो दरअसल सरकार का भी नजरिया है। कानून लागू करने के वक्त से ही सरकार लगातार यह बात कहती आई है कि उसका यह फैसला अगले साल तक किसानों की आय दोगुनी करने के संकल्प का सबसे सशक्त कदम है, लेकिन क्या वजह है कि सरकार का यह यकीन किसानों को भरोसे में नहीं ले पा रहा है? क्या सरकार की कोशिशों में ही कहीं कोई कमी है या फिर किसानों को बरगलाने के सरकार के आरोप में वाकई कोई दम है? लेकिन इसी मुद्दे पर साथ छोड़कर जाने वाले शिरोमणि अकाली दल और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी तो सरकार के अपने सहयोगी थे, तो उन्हें किसने बरगलाया? यह मान भी लिया जाए कि इस विरोध के पीछे दोनों का सियासी फायदा था, तो फिर भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच के सामने क्या मजबूरी है? यह दोनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े बड़े संगठन हैं और नये कानूनों के कुछ प्रावधानों पर सुझाव के साथ अपनी असंतुष्टि जता चुके हैं।

ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि सरकार ने किसान संगठनों की ओर से आए सुझावों पर ध्यान नहीं दिया, वरना ना किसानों की दो मांगें मानी जातीं और न ही अठारह महीनों तक कानून स्थगित करने का प्रस्ताव आया होता। जाहिर है इसके पीछे मंशा संवाद को बनाए रखने की ही होगी। यह प्रस्ताव उन दो परिस्थितियों में से एक था, जब लगा कि गतिरोध तोड़ने का कोई रास्ता निकल सकता है। दूसरा वक्त वो था जब सुप्रीम कोर्ट ने कानून पर रोक लगा कर कमेटी बनाने की बात कही थी, लेकिन किसान संगठनों ने दोनों बातों को खारिज कर दिया और आज की हकीकत यह है कि मामला अभी भी जस का तस बना हुआ है, लेकिन क्या कृषि कानून इस गतिरोध की अकेली वजह है? क्या यह संभव नहीं कि इस विरोध के जरिए किसानों का दशकों से दबा हुआ गुस्सा भी बाहर आया है? बरसों से कृषि घाटे का सौदा बनी हुई है और किसानों की आमदनी लगातार गिरती गई है। आज जब किसानों की इस समस्या को सुलझाने की पहल हो रही है, तो किसानों को अपने पुराने तजुबरे के कारण भविष्य भी अंधेरे में डूबता दिख रहा है।

तो आखिर आंदोलन खत्म कैसे होगा? क्या सरकार के पास अभी भी ऐसी कोई पेशकश बची है, जिस पर किसान संगठन राजी हो सकते हैं? संसद में इस विषय पर बोलते हुए कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर ने विपक्ष और किसान संगठनों से ही पूछा है कि वो बताएं कि इस कानून में काला क्या है जिसे सुधारा जा सके। क्या ऐसा हो सकता है कि तीनों कानून रद्द होने पर अभी सहमति नहीं बन पा रही है, तो एमएसपी पर ही सरकार किसानों को गारंटी देने के लिए तैयार हो जाए? वैसे भी ज्यादातर किसान नेताओं की बातचीत से यही समझ में आता है कि 12 दौर की बातचीत के बावजूद इस मसले पर विस्तार से चर्चा नहीं हो पाई है, लेकिन इस सब के लिए जरूरी है कि चर्चा का जो सिरा टूट गया है, वह फिर से जुड़े। पेच यह भी है कि इसकी शुरुआत कौन करे? सरकार ने इस मामले में जितना लचीलापन दिखाया है, आगे भी उम्मीद उसी से की जा सकती है। वैसे इस बात के पूरे आसार हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सोमवार को इस विषय पर संसद को संबोधित कर सकते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री का यह संबोधन अविश्वास की दीवार तोड़कर भरोसे का पुल बनाने और संवाद का सिलसिला दोबारा शुरू करने का काम करेगा।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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