तेल के बढ़ते दाम, कैसे लगे लगाम?

February 27, 2021

अगर दुनिया का तमाम पेट्रोल-डीजल खत्म हो जाए, तो क्या होगा? जाहिर तौर पर पूरी दुनिया ठप हो जाएगी। यानी इस लिहाज से पेट्रोल को दुनिया की लाइफ-लाइन कहा जा सकता है। लेकिन पेट्रोल खुद भी ‘अमर’ नहीं है। इसका ‘जीवन काल’ भी निर्धारित है और दुर्भाग्यवश यह समय सीमा अब हमसे ज्यादा दूर नहीं है।

कनाडा की यूनिर्वसटिी ऑफ क्यूबेक का अनुमान है कि हम चाहें या न चाहें, यह दुनिया अगले पांच दशक यानी साल 2070 तक पेट्रोल-मुक्त हो जाएगी। दुनिया के ज्यादातर विशेषज्ञ इस अनुमान की हिमायत कर चुके हैं। ऐसा पेट्रोल के किसी बेहतर विकल्प की तलाश पूरी होने की वजह से नहीं होगा, बल्कि बेलगाम शोधन की वजह से सिकुड़ते जा रहे तेल भंडारों के पूरी तरह ‘सूख’ जाने की वजह से होगा।

फिलहाल तो जो समस्या हमारे सामने खड़ी है, वो इसके ठीक विपरीत हालात की वजह से बनी है। कोरोना काल में कच्चे तेल की मांग और दाम घट जाने की वजह से ओपेक ने तेल उत्पादन को सीमित कर दिया है, जिससे पेट्रोल-डीजल के दामों में आग लग गई है। कच्चा तेल इस समय पिछले 13 महीनों के उच्चतम स्तर पर है, केवल पिछले दो महीनों में ही इसके दाम 23 फीसद तक बढ़े हैं। लेकिन पेट्रोल-डीजल के दाम में हो रही लगातार मूल्य वृद्धि की यही अकेली वजह नहीं है। पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों में दो-तिहाई हिस्सा टैक्स का होता है, जिसमें केंद्र सरकार की एक्साइज ड्यूटी और राज्यों के हिस्से में जाने वाला वैट शामिल है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मौजूदा हालात की एक वजह और बताई है। यह है ऊर्जा के आयात पर हमारी बढ़ती निर्भरता। साल 2014 में यूपीए सरकार की विदाई के दौरान हम अपनी तेल खपत का 83 फीसद हिस्सा आयात कर रहे थे। नई सरकार ने साल 2022 तक आयात की इस ‘मजबूरी’ को दस फीसद तक कम करने का लक्ष्य तय किया। इस दिशा में काफी सारे प्रयास हुए, देश ने कई नवाचार भी देखे, लेकिन साल 2019-20 तक आते-आते कुल खपत का आयात 73 फीसद होने के बजाय 88 फीसद तक पहुंच गया यानी दस फीसद घटने के बजाय आयात पांच फीसद बढ़ गया। हालांकि सरकार की तय डेडलाइन में अभी भी एक साल का वक्त है, लेकिन इतने कम समय में 15 फीसद की ‘खाई’ को पाटना आसान नहीं होगा।

तेल शोधन में शिथिलता  
आखिर तमाम दावों के बावजूद हम तेल का आयात कम करने में सफल क्यों नहीं हो पा रहे हैं? क्या हमारे देश में तेल के भंडार नहीं बचे हैं, या तेल भंडार हैं भी, तो हम उनके शोधन में आलस्य दिखा रहे हैं। इसकी बड़ी जिम्मेदारी ओएनजीसी के कंधों पर है, जो देश में कच्चे तेल के कुल उत्पादन में तीस फीसद से ज्यादा योगदान देता है। साल 2014 में तेल के नये स्त्रोत ढूंढने के लिए ओएनजीसी का बजट 11 हजार करोड़ रु पये का था, जो 2018-2019 में घटकर 6 हजार करोड़ रुपये रह गया यानी लगभग आधा। लेकिन इस आधी राशि का भी पूरा उपयोग नये तेल भंडार ढूंढने के काम में नहीं हो सका। ओएनजीसी को इसका एक हिस्सा बीपीसीएल में विनिवेश के लिए खर्च करना पड़ गया।

तो अब सरकार के सामने हालात ये हैं कि ओपेक ने अपना उत्पादन घटा दिया है और घरेलू खपत के लिए हम आयात पर पहले से भी ज्यादा निर्भर हैं। ऊपर से कोरोना से प्रभावित अर्थव्यवस्था के बीच राजस्व जुटाने के लिए पेट्रोल-डीजल पर टैक्स बढ़ाने का दबाव सरकार की चुनौती को और मुश्किल बना रहा है। घर में कच्चा तेल पैदा नहीं हो रहा और बाहर से जितना भी आएगा, उसके बढ़े दाम चुकाने होंगे। साफ तौर पर तेल का खेल अब पेचीदा हो गया है और पानी सिर के ऊपर हो जाने का खतरा बढ़ गया है। जरूरत विकल्प तलाशने की है और वो भी जितनी जल्दी हो सके, उतना बेहतर होगा, क्योंकि महंगा पेट्रोल-डीजल महंगाई को बढ़ाएगा जिससे मांग पर बुरा असर पड़ सकता है, जो पटरी पर लौट रही अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं होगा। इसकी सबसे बड़ी मार गरीब और असंगठित क्षेत्र के कामगारों, मजदूरों और किसानों पर पड़ेगी, जिनकी कमाई और मांग, दोनों में भारी गिरावट आएगी। आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने भी इन्हीं परिस्थितियों को भांपते हुए इनडायरेक्ट टैक्स को कम करने की बात कही है।

तो ऐसे में सरकार के पास क्या विकल्प है? सामान्य समझ कहती है कि इस मुश्किल से निकलने के दो रास्ते हो सकते हैं। एक तो यह कि मौजूदा मांग और आपूर्ति में सामंजस्य बैठाते हुए तेल के दाम पर नियंत्रण लगाया जाए। दूसरा रास्ता पेट्रोल-डीजल के विकल्प तलाश कर देश में उनका चलन बढ़ाया जाए। पहले रास्ते पर कदम बढ़ाने का एक ही तरीका है  पेट्रोल-डीजल को जीएसटी में शामिल कर लिया जाए। इससे तेल पर लगने वाली एक्साइज ड्यूटी, वैट, ट्रांसपोर्ट, डीलर, लोकल बॉडी टैक्स जैसे तमाम टैक्स खत्म हो जाएंगे और सिर्फ  एक टैक्स लगेगा। ऊपर से देखने पर यह तरीका जितना सीधा दिखता है, दरअसल उतना ही टेढ़ा है। सीधा होता तो सरकार कब का इसे आजमा चुकी होती। टेढ़ा कैसे है, पहले वो समझ लीजिए। पेट्रोल-डीजल पर अभी अलग-अलग मद में 65 फीसद टैक्स लगता है। यह जीएसटी में आ जाएगा तो सबसे ऊंचे स्लैब में रखने पर भी इस पर 28 फीसद टैक्स ही लग पाएगा। सरकार इस पर जो सेस लगाना चाहेगी, वो इसमें जरूर जुड़ सकता है, लेकिन तब भी आम आदमी के लिए इसमें राहत ही है। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों को यह गवारा नहीं होगा, क्योंकि इससे उनका राजस्व बुरी तरह प्रभावित होगा और विकास कार्य एवं तमाम कल्याणकारी योजनाओं पर तलवार लटक जाएगी। एक उदाहरण से बात और साफ हो जाएगी। आबादी के लिहाज से छत्तीसगढ़ छोटा राज्य है, लेकिन वह भी पेट्रोल-डीजल पर वैट लगाकर इस वित्त वर्ष में करीब 30 हजार करोड़ रु पये की कमाई कर चुका है। दूसरे राज्यों की कमाई के बारे में सोचिए, तो आपको समझ आ जाएगा कि विपक्षी सरकारें भले ही इस समस्या के लिए केंद्र को कोसें, लेकिन ‘दुधारू गाय’ को वो भी हाथ से नहीं जाने देना चाहतीं।

विकल्पों की तलाश
अब बात दूसरे रास्ते की जो लंबा भी है और घुमावदार भी, जो हमें मंजिल तक ले भी जा सकती है और नई मुसीबत की वजह भी बन सकता है। राह है जीवाश्म ईधन जैसे पेट्रोलियम, कोयला और आयल शैल के विकल्पों की तलाश। दुनिया भर में इस पर काम रफ्तार पकड़ चुका है। हमारे देश की सरकार भी ऊर्जा के नये विकल्पों पर आत्मनिर्भरता बढ़ाना चाहती है। इसमें एक विकल्प तो पराली और गन्ने से तैयार होने वाली बायो-सीएनजी हो सकती है। हाल ही में इससे चलने वाला ट्रैक्टर भी लॉन्च हुआ है। इसके साथ ही एलपीजी और पीएनजी जैसी प्राकृतिक गैसों को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। हालांकि अभी हम कुल खपत की 53 फीसद प्राकृतिक गैस ही आयात कर रहे हैं, फिर भी तेल के 88 फीसद आयात की तुलना में यह काफी कम है। सभी पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स की जगह फिलहाल केवल प्राकृतिक गैस को प्रायोगिक तौर पर जीएसटी में लाकर इसका असर देखा जा सकता है।

दो और विकल्प हैं, जिनका दुनिया में कहीं ज्यादा व्यापक तौर पर इस्तेमाल हो रहा है। पहला बिजली, दूसरा ग्रीन हाइड्रोजन। अमेरिका, जापान समेत कई यूरोपीय देशों में इन विकल्पों पर आधारित तकनीक कामयाब हुई है। इस दौड़ में नार्वे दुनिया का ऐसा पहला देश बन गया है, जहां पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों की तुलना में इलेक्ट्रिक वाहनों की ज्यादा बिक्री हो रही है। इसी तरह कनाडा ने दुनिया का पहला इलेक्ट्रिक कमर्शियल विमान उड़ाकर आसमानी सफलता हासिल की है। कामयाबी का यह सिलसिला हाइड्रोजन फ्यूल के क्षेत्र में भी दिखाई दे रहा है। ब्रिटेन की विश्व प्रसिद्ध डबल-डेकर बसें और ट्रक के साथ ही रेलगाड़ियां भी ग्रीन हाइड्रोजन से अपना सफर तय कर रही हैं। बेशक, भारत अभी इस क्रांति में बड़ा नाम नहीं बना है, लेकिन इस मोर्चे पर देश में बड़ा काम करने का माहौल जरूर तैयार होने लगा है। इसकी शुरु आत करते हुए केंद्र सरकार ने अपने काफिले में दर्जन-भर से ज्यादा इलेक्ट्रिक वाहनों को शामिल किया है, वहीं कुछ राज्य ई-वाहनों पर सब्सिडी दे रहे हैं। बिजली का सरप्लस उत्पादन इस क्षेत्र में हमें मजबूती दे सकता है। इसी तरह बजट में हाइड्रोजन मिशन से ऊर्जा आत्मनिर्भरता हासिल करने का रोडमैप दिखाया गया है।

संदेश बिल्कुल साफ है। पेट्रोल-डीजल का संकट अब ऐसी हकीकत है, जिसका सामना किए बिना इससे पार नहीं पाया जा सकता। जरूरत ऐसा संतुलन साधने की है, जिससे राजस्व का भी नुकसान न हो और आमजन भी परेशान न हो।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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