नियति बनती बाढ़

August 28, 2021

भारत की संस्कृति में जल को जीवन का आधार माना गया है और जल को सहेजने की परंपरा अनादि काल से चली आ रही है। हमारे आदिग्रंथों में जल के विभिन्न रूपों को कल्याणकारी बताया गया है। इसी का एक स्रोत नदियां हैं, जिन्हें देवतुल्य मानते हुए कई सभ्यताएं उनके किनारे जन्मीं और फली-फूली।

इसी क्रम में अथर्ववेद में यह कामना मिलती है कि कि कुओं का जल हमें समृद्धि दे, एकत्र किया गया जल हमें समृद्धि दे, वर्षा का जल हमें समृद्धि दे। लेकिन समय बीतने के साथ हम जल को प्राकृतिक तरीकों से सहेजने की परंपरा से दूर होते गए हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि जब वर्षा जल की अतिवृष्टि होती है, तो यह समृद्धि लाने की बजाय विनाश की वजह भी बन जाती है।

उफनतीं नदियों से आती बाढ़
साल-दर-साल वर्षाकाल में जब हमारी नदियां उफनती हैं, तो वे मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ के रूप में अवतरित होती हैं। आज स्थिति यह है कि बांग्लादेश के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा बाढ़ग्रस्त देश बन गया है। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल औसतन 1,600 से ज्यादा लोग बाढ़ की भेंट चढ़ जाते हैं, वहीं इंटरनेशनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटिरंग सेंटर यानी आईडीएमसी की रिपोर्ट बताती है कि बाढ़ से सालाना बेघर होने वालों का आंकड़ा अब 20 लाख को पार गया है। संयुक्त राष्ट्र ने इसका संज्ञान लेते हुए दो साल पहले एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें यह अनुमान सामने आया कि पिछले दो दशकों में देश के अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ से फसलों, घरों और सरकारी संपत्ति को पहुंचे नुकसान से भारत को 547 लाख करोड़ रु पये की आर्थिक क्षति हुई है। यदि इस नुकसान को बचा लिया जाता तो इससे समाज कल्याण की कई योजनाएं चलाई जा सकती थीं, लाखों स्कूल खोले जा सकते थे, महामारी के दौर में कई अस्पताल, ऑक्सीजन गैस प्लांट, वेंटीलेटर और अन्य जीवन बचाने वाले लाखों उपकरण जुटाए जा सकते थे।

कुछ राज्यों में बाढ़ ‘सालाना परंपरा’
खास तौर पर बिहार, उत्तर प्रदेश और असम जैसे राज्यों में तो बाढ़ एक स्थायी समस्या बन गई है। साल-दर-साल इन राज्यों में नदियों के किनारे बसी आबादी इस ‘सालाना परंपरा’ की भारी कीमत चुकाती है। बाढ़ की सबसे ज्यादा मार बिहार पर पड़ती है। देश के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में बिहार की 16.5 और आबादी के लिहाज से 22.1 फीसद हिस्सेदारी है। उसमें भी उत्तरी बिहार की 75 फीसद आबादी दशकों से इसका दंश झेलने को मजबूर है। राज्य की जीवनरेखा कही जाने वाली महानंदा, कोसी, बागमती, बूढ़ी गंडक और गंडक जैसी नदियां यहां हर साल मानसून में काल बन जाती हैं। नेपाल से निकलने वाली ये नदियां अलग-अलग हिस्सों में गंगा नदी से मिलती हैं, जो राज्य के बड़े हिस्से से होकर गुजरती है। कोसी, गंडक और घाघरा की गिनती दुनिया में सबसे ज्यादा गाद लाने वाली नदियों में होती है। ये तीनों गंगा में मिलती हैं, और उसे उथला बना देती है।

फिर गंगा के पश्चिम बंगाल में प्रवेश करते ही फरक्का बैराज आ जाता है, जिससे गंगा का प्रवाह कम हो जाता है। इससे गंगा का पानी तटों की ओर फैलता है। आज गाद बढ़ जाने से गंगा का दायरा इतना फैल गया है कि उसकी मुख्यधारा का पता ही नहीं चल पाता। नब्बे के दशक में गैर-मानसूनी सीजन के दौरान गंगा की जो गहराई दस मीटर तक हुआ करती थी, वो अब घटकर कहीं-कहीं मात्र चार मीटर तक रह गई है। इन्हीं सब समस्याओं को लेकर राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तीन साल पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चिट्ठी भी लिखी थी। बेशक, उस चिट्ठी पर केंद्रीय एजेंसियों की ओर से कार्रवाई भी हुई, लेकिन बक्सर से भागलपुर के बीच बिहार की बाढ़ की समस्या जस-की-तस बनी हुई है।

भूगोल बदलने लगा है बढ़ता जलस्तर
देश के बाकी इलाकों में भी नदियों का बढ़ता जलस्तर तटवर्ती इलाकों का भूगोल बदलने लगा है। उत्तर प्रदेश का शेरपुर-सेमरा इसका बहुत अच्छा उदाहरण है। गाजीपुर जिले के इस क्षेत्र में पानी के कटाव से हर साल कई बीघा जमीन गंगा में समाहित हो जाती है। पिछले एक दशक में यहां की सैकड़ों एकड़ जमीन गंगा में डूबी है और उसके साथ ही यहां बसे लोगों के घर, मकान, मवेशी और संपत्ति के साथ खेती योग्य भूमि भी गंगा में डूब गई है। लेकिन दशकों की समस्या सुलझने की बजाय बढ़ती जा रही है।

ऐसा नहीं है कि बाढ़ केवल भारत में ही आती है। अमेरिका, चीन से लेकर जर्मनी, स्पेन, बेल्जियम, स्विट्जरलैंड और नीदरलैंड जैसे देश भी बाढ़ की आपदा झेलते हैं। इस बार तो इनमें से कई देशों में सदी की सबसे भयानक बाढ़ आई है। इसके बावजूद बेहतर जल प्रबंधन के दम पर इन देशों ने बाढ़ की आपदा को अपनी नियति बनने नहीं दिया है। नीदरलैंड इसका बड़ा उदाहरण है, जो अपने नाम के अनुसार निम्न भूमि का इलाका है। एक-चौथाई देश समुद्र तल से नीचे है, और आधा देश हर साल बाढ़ झेलता था, लेकिन नीदरलैंड के लोगों ने प्रकृति की इस चुनौती को प्राकृतिक तरीके से ही पार पाया। उन्होंने जमीन से उठे गांव बसाए और उनमें पानी में तैरने वाले लकड़ी के घर बनाए। वहां भी सरकार ने उन्हें ऊपरी इलाकों में जाने का विकल्प दिया, लेकिन स्थानीय लोगों ने बाढ़ से बचने वाले टिकाऊ उपाय तलाशने को वरीयता दी, जिसका नतीजा यह है कि बाढ़ अब उनके लिए चुनौती नहीं रही। सिंगापुर जैसे छोटे से देश ने भी पानी की निकासी के इंतजाम दुरुस्त कर बाढ़ के मामलों को 98 फीसद तक कम कर लिया है।

बाढ़ प्रबंधन की समीक्षा जरूरी
ऐसे में जरूरी है कि हमारे देश में भी बाढ़ के प्रबंधन के लिए बनी राष्ट्रीय जल नीति, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और केंद्रीय जल आयोग के कामकाज की समीक्षा की जाए। ऐसा नहीं है कि सरकारी स्तर पर बाढ़ से निपटने के प्रयास ही न किए गए हों। नदियों के अतिशेष जल को बांधने के लिए देश में अनेक बांध बने हैं, सरकारी स्तर पर कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, जिससे नदियों में कटान रोकने, गाद हटाने, निचले इलाकों में गांवों को ऊंचा करने, शहरों में नालों की सफाई और उनसे अतिक्रमण हटाने जैसे काम नियमित तौर पर चलते रहते हैं। सत्तर के दशक में देश को केंद्रीय बाढ़ नियंतण्रबोर्ड भी मिला। साथ ही, बाढ़ नियंतण्रके लिए रिमोट सेंसिंग और बेहतर सूचना व्यवस्था के साथ-साथ आधुनिक तकनीक का भी उपयोग किया जाता है, लेकिन जमीन पर सूरतेहाल ज्यादा बदले नहीं है।

नदी जोड़ो अभियान को अक्सर इसके एक विकल्प के तौर पर सुझाया जाता है। सैद्धांतिक रूप में यह अभियान एक ही समय में बाढ़ और सूखे की समस्या को सीमित करने का आासन देता है, लेकिन विशेषज्ञ और पर्यावरणविद् इसकी व्यावहारिकता पर सवाल उठाते हैं। हर नदी का अपना इकोसिस्टम होता है, जो दो अलग-अलग नदियों को जोड़ने से प्रभावित हो सकता है। इसके परिणाम विनाशकारी भी हो सकते हैं। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में नदियों के मार्ग में हुए हस्तक्षेप के नतीजों को नकारा नहीं जा सकता। नदियों को आपस में जोड़ने के लिए बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण की भी जरूरत पड़ेगी। आर्थिक रूप से यह प्रयोग खर्चीला हो सकता है, वहीं देश की बड़ी कृषि भूमि दलदल में बदल कर बंजर हो सकती है, जिससे खाद्यान्न का संकट भी पैदा हो सकता है। इसके अलावा, पानी के बंटवारे को लेकर राज्यों की आपसी लड़ाई का अनुभव भी इस अभियान की व्यावहारिकता को सीमित करता है।

नदियों को जोड़ना जरूरी नहीं
वैसे नदियों को जोड़े बिना भी बाढ़ और सूखे की समस्या से निजात पाई जा सकती है। पुराने समय में शहरों में तालाब होते थे, जो बारिश के समय पानी इकट्ठा कर बाढ़ की समस्या भी हल करते थे और सूखे में भी राहत देते थे। धान की खेती को बारिश के साथ जोड़ना भी एक तरह का बाढ़ प्रबंधन ही था, जिसमें बारिश के पानी को खेतों में दूर-दूर तक फैला दिया जाता था। पुराने समय की तरह अगर हम नदियों के प्राकृतिक बहाव के रास्ते तैयार करें, तो भी बाढ़ को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि अतिवृष्टि एक प्राकृतिक आपदा है, लेकिन उसके बाढ़ में बदल जाने के पीछे मानवीय हाथ से भी इनकार नहीं किया जा सकता। शायद यही वजह है कि बाढ़ अब त्रासदी नहीं, बल्कि हमारी नियति बन गई है।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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