आजादी का 75वां वर्ष राष्ट्रपिता का सपना

October 2, 2021

दो अक्टूबर यानी गांधी जयंती। साल-दर-साल आज के दिन पूरा देश ही नहीं, बल्कि दुनिया भी उस महान शख्सियत की याद में नतमस्तक होती है, जिन्होंने हमें नफरत के बीच प्रेम, हिंसा के बीच अहिंसा और झूठ-प्रपंच के बीच सत्य और स्वाधीनता के मायने समझाए।

ऐसा भी नहीं है कि जीवन दर्शन से जुड़े इन मूल्यों का बापू ने ही आविष्कार किया हो, वो तो पहले से ही अस्तित्व में थे। लेकिन इन मूल्यों पर खुद चलकर बापू ने अपने समय की मानवता को इनके होने और इन्हें अपनाने के महत्त्व से परिचित करवाया। संयोग से इस बार गांधी जयंती का अवसर ऐसा है कि देश आजादी का अमृत महोत्सव भी मना रहा है। यह जश्न प्रतीक है अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के उस पावन मौके का, जो 75 वर्ष बाद भी देश के जनमानस को आंदोलित करता है, लेकिन क्या हम यही बात इतने ही विास के साथ उस शख्स के विचारों के लिए भी कह सकते हैं, जो दरअसल इस आजादी का प्रणोता और इसके कई नायकों में सबसे प्रतिष्ठित नाम था। एक स्वतंत्र देश के रूप में हम गांधी के सपने को कितना सच बना पाए हैं? नया भारत अपने राष्ट्रपिता के विचारों की कसौटी पर कितना खरा उतरा है? देश ही क्यों वैश्विक परिदृश्य में आज गांधीवाद कितना प्रासंगिक रह गया है? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर के बिना गांधी जयंती मनाना सार्थक नहीं होगा, रस्म अदायगी से ज्यादा इसका कुछ मोल नहीं होगा।    

लंबे संघर्ष का विस्तृत दस्तावेज
एक देश के रूप में बीते साढ़े सात दशक की हमारी यात्रा लंबे संघर्ष और सफलता-असफलताओं का एक विस्तृत दस्तावेज है। कई अवसरों पर हम लड़खड़ाए हैं, तो कई असंभव-सी दिखने वाली चुनौतियों को पार कर हमने वि में अपनी प्रतिष्ठा को कायम भी रखा है। बेशक, हर वक्त नहीं, लेकिन संकट के हर दौर में गांधी हमें याद आते रहे हैं। हाल के दिनों में जब कोरोना की सबसे ताजा चुनौती के बीच दुनिया एक बार फिर भारत के तौर-तरीकों की ओर मुखातिब हुई है, तब भी गांधी पथ ने हमारा मार्गदर्शन किया है। इसके बावजूद आज भी कई ऐसे मसले हैं, जिनमें दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने सबसे बड़े मार्गदर्शक की दिखाई राह से भटकता दिखा है।

याद कीजिए, जब देश स्वतंत्रता के जश्न में डूबा था, देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू संसद में अपना वि प्रसिद्ध ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ वाला भाषण पूरा कर रहे थे, घर-घर में तेल या घी नहीं, आजादी के दीये जल रहे थे, तब गांधी कहां थे? वो तो इस राष्ट्रीय उत्सव से दूर तत्कालीन बंगाल के नौआखली में थे। क्यों? क्योंकि देश का वो इलाका सांप्रदायिक दंगों में जल रहा था। बापू वहां लोगों को यही समझा रहे थे कि दुनिया को हिंदू-मुसलमान में हम बांटते हैं, ईर तो सबको इंसान बनाकर ही भेजता है। चंद महीनों बाद बापू खुद ही इस विभाजनकारी सोच के शिकार भी हो गए।
 

75 साल बाद वही सांप्रदायिक विभाजन रेखा आज भी हमारे लिए एक ऐसी चुनौती है, जिसे पाटा नहीं जा सका है। इन संप्रदायों के अंदर की जातियों के नाम पर होने वाले झगड़े ने इसे और चौड़ा कर दिया है। देश के बंटवारे का आधार बने ये मसले आज भी देश को टुकड़ों-टुकड़ों में विभक्त कर रहे हैं। हकीकत यह है कि राजनीतिक विमर्श और चुनावी सियासत का केंद्र बन जाने से नफरत की यह हवा देश की सामाजिक समरसता के लिए बड़ा खतरा बन गई है।

खमियाजा उठाने वाला आबादी का हिस्सा  
इसका सबसे बड़ा खमियाजा उठाता है आबादी का वो हिस्सा जो गरीबी रेखा के नीचे जीने को मजबूर है। यह एक और क्षेत्र है, जहां हम भारत को अब भी गांधी के सपनों वाला देश नहीं बना पा रहे हैं। देश में 2011 के बाद इस तरह का कोई आधिकारिक आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण नहीं हुआ है। संयुक्त राष्ट्र का एक अनुमान जरूर है, जिसके हिसाब से साल 2019 तक देश में करीब 36.40 करोड़ गरीब थे, जो कुल आबादी का 28 फीसद है। इसमें कोरोना के कारण 3.2 करोड़ लोगों के मिडिल क्लास से गरीबी रेखा के नीचे चले जाने वाले र्वल्ड बैंक के अनुमान को जोड़ें, तो यह संख्या 40 करोड़ के आसपास बैठती है यानी एक-तिहाई से थोड़ा कम। इतना ही चिंताजनक एक दूसरा आंकड़ा भी है। ऑक्सफेम इंडिया की दो साल पुरानी एक रिपोर्ट बताती है कि देश में आर्थिक असमानता इस स्तर पर है कि कुल संपत्ति सृजन का 73 फीसद हिस्सा केवल एक फीसद अमीरों के हाथों में चला गया है। यह सब अचानक नहीं हुआ है, बल्कि पिछले करीब तीन दशक में श्रम की जगह पूंजी और अकुशल की जगह कुशल श्रम को बढ़ावा देने वाली नीतियां इसकी जिम्मेदार हैं।

हर साल बजट से पहले सुपर रिच टैक्स की चर्चा इसीलिए जोर पकड़ती है, क्योंकि पूंजी के इस असमान वितरण पर टैक्स लगाकर गरीबों के स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण को सुधार कर गांधी के समान अवसरों वाला देश बनाने की परिकल्पना का कुछ अंश तो साकार किया ही जा सकता है, वरना तो एक अनुमान यह भी है कि हमारे गांवों में खून-पसीना एक करके एक मजदूर जितना पैसा जिंदगी भर में कमाता है, उससे दोगुना तो कॉरपोरेट का एक उच्च अधिकारी महीने भर की तनख्वाह से ही कमा लेता है।

पंचायती राज व्यवस्था का मूल आधार
ग्रामीण और शहरी भारत में समाज के पहले और आखिरी व्यक्ति के बीच बढ़ती इस खाई को बापू ने बहुत पहले ही भांप लिया था और ग्राम गणराज्य की संकल्पना को इसके निदान के रूप में प्रस्तुत किया था, जो दरअसल पंचायती राज व्यवस्था का मूल आधार है। पंचायतें दिल्ली से निकली ग्रामीण स्तर की हर योजना का अंतिम लेकिन बेहद महत्त्वपूर्ण बिंदु होती हैं, और योजना की सफलता और ग्रामीण अंचलों में रोजगार के विषय से सीधे जुड़ती हैं। लेकिन अन्य निकायों की तरह पंचायतों को दलगत राजनीति से जोड़ दिए जाने से इनके सशक्तिकरण की मुहिम प्रभावित हुई है। गांव के विकास की जगह दल का हित सर्वोपरि हो गया है। अच्छी बात यह है कि सरकार ने अब देश की 2.51 लाख पंचायतों को भी संसद और विधानसभा की तर्ज पर चलाने का फैसला किया है, जिसमें गांवों से जुड़े सभी हितग्राहियों के बीच नियमित बैठकें होने से तत्काल समाधान भी निकलेगा और पंचायत की शक्तियां भी बढ़ेंगी।

इन तमाम चुनौतियों के बीच कम-से-कम दो ऐसे क्षेत्र गिनाए जा सकते हैं, जहां आज का भारत गांधी के सपनों से तालमेल करता दिखता है। पहला स्वदेशी का भाव जो मेक इन इंडिया से रफ्तार पकड़ते हुए आत्मनिर्भर भारत अभियान तक पहुंच गया है, और दूसरा स्वच्छता पर आई जागरूकता। गांधी जी के इन दो प्रमुख विचारों को आज के भारत में जनआंदोलन बनाने का एकमेव श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जाता है। गांधी जी कहते थे स्वच्छता को अपने आचरण में इस तरह अपना लो कि वह आपकी आदत बन जाए। प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर देश इस दिशा में काफी आगे बढ़ा है। जिस तरह अंग्रेजों के खिलाफ गांधीजी का ‘भारत छोड़ो’ का आह्वान स्वतंत्रता पर जाकर खत्म हुआ था, उसी तर्ज पर प्रधानमंत्री की ‘गंदगी भारत छोड़ो’ की अपील भी सफल साबित हुई है। कल ही प्रधानमंत्री की अगुवाई में देश स्वच्छ भारत मिशन के दूसरे चरण में प्रवेश कर गया।

स्वदेशी का भाव और स्वाधीनता आंदोलन
स्वच्छता की ही तरह स्वदेशी का भाव भी स्वाधीनता आंदोलन का अमूर्त आधार था, जिसे गांधी जी ने अपने चरखे से भौतिक रूप में अभिव्यक्त किया था। यह दिलचस्प है कि 100 साल पहले बापू ने जिस तरह अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग का नारा बुलंद करते हुए स्वदेशी की सफलता की कहानी लिखी थी, उसी तरह प्रधानमंत्री मोदी आज कोरोना-काल में आत्मनिर्भरता के विचार से आधुनिक भारत के विकास का दस्तावेज तैयार कर रहे हैं।

इसे भी प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता ही कहा जाएगा कि ‘मेक इन इंडिया’ के विचार को आगे ले जाते हुए उन्होंने ‘मेक फॉर र्वल्ड’ की बात भी कही है। पहले भूमंडलीकरण और अब कोरोना के बाद दुनिया में संरक्षणवाद जिस तरह बढ़ा है, उसमें हर देश अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए आर्थिक राष्ट्रवाद की राह पर बढ़ा है। लेकिन इस वजह से मानवता के प्रति जिम्मेदारी के संकुचन का खतरा भी है। मेक फॉर र्वल्ड की अवधारणा मानवता के प्रति इसी जिम्मेदारी की ओर एक कदम है, जिसकी वकालत महात्मा गांधी भी किया करते थे।
 

बापू अपने सिद्धांतों के प्रति अंतिम सांस तक प्रतिबद्ध रहे। गुजरात की धरती से निकले देश के एक और सपूत सरदार पटेल ने उनके बारे में कहा था कि किसी व्यक्ति ने देश को सच्चे अथरे में सिद्धांत और व्यवहार से जोड़ा तो वो महात्मा गांधी थे। गुजरात से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी आते हैं, जिनके नेतृत्व में सरकार सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास के उसी मूलमंत्र पर आगे बढ़ रही है, जो समानता, सम्मान, समावेश और सशक्तिकरण के उन्हीं मूल्यों पर आधारित है, जिनकी महात्मा गांधी जीवन भर पैरवी करते रहे।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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