कांग्रेस में जंग, ओल्ड बनाम यंग

October 3, 2021

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इन दिनों अंतर्कलह को लेकर काफी चर्चा में है।

एक विरोध तो सत्ता के खिलाफ है, जो उसके प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते लोकतंत्र की स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन कांग्रेस का जो विरोध ज्यादा सुर्खियां बटोर रहा है, वह उसका अंदरूनी संकट है, जो सबसे पुराने राजनीतिक दल के अस्तित्व को ही चुनौती देता दिख रहा है। ढाई साल से बिना पूर्णकालिक अध्यक्ष वाली पार्टी ऐसी दिशाहीनता की शिकार है, जिसमें बुजुर्ग नेता हाशिए पर डाले जा रहे हैं और युवा सियासी भविष्य की तलाश में पार्टी छोड़कर जा रहे हैं। नतीजतन, कांग्रेस का संगठन बिखर रहा है और जनाधार लगातार सिमटता जा रहा है।

आज कांग्रेस इस हालत में पहुंची है, तो इसका जिम्मेदार कौन है? दबी जुबान में यह सवाल कांग्रेस में काफी समय से पूछा जा रहा है। अब जब पानी सिर से गुजरता दिख रहा है, तो विरोध की आवाजें भी मुखर हो रही हैं। जी-23 गुट से लेकर नटवर सिंह जैसे खांटी कांग्रेसी अब खुलकर सामने आ रहे हैं, जिससे यह बात साफ हो रही है कि केंद्रीय नेतृत्व को लेकर बड़े नेताओं में भी संशय की स्थिति है। कई मुश्किल मौकों पर पार्टी के रणनीतिकार रहे कपिल सिब्बल जैसे नेता अगर यह कहने लगें कि पता ही नहीं चल रहा है कि पार्टी के फैसले कौन ले रहा है, तो हालात समझे जा सकते हैं। ऐसी नौबत तब आती है, जब नेतृत्व अपने नेताओं से दूर हो जाता है और अपने भी उसे कमजोर मानने लगते हैं। इस उथल-पुथल की तात्कालिक वजह बने पंजाब में आखिर क्या हुआ? कैप्टन अमरिंदर सिंह, नवजोत सिंह सिद्धू, हरीश रावत, सुनील जाखड़ हर नेता की अपनी अलग राय थी और कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं था, केंद्रीय नेतृत्व की भी नहीं। नतीजा क्या हुआ? अच्छी-खासी चल रही सरकार के सामने सवाल खड़ा हो गया है कि चुनाव बाद की तो छोड़िए, चुनाव तक भी वह टिक पाएगी या नहीं? पंजाब ही क्यों, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस की सरकारें मतभेदों की ऐसी दरकती दीवारों पर टिकी दिख रही हैं, जो किसी भी वक्त ढह सकती हैं।

आखिर, क्या वजह है कि सवा सौ-साल से भी ज्यादा पुरानी और अनुभवी कांग्रेस अपने ही नेताओं को नहीं परख पा रही है। सेनापति की कमी के साथ-साथ इसमें पार्टी में चल रही ओल्ड बनाम यंग की जंग का भी हाथ माना जा रहा है। इस बात की चर्चा जोरों पर है कि दोबारा पार्टी का अध्यक्ष बनने से पहले राहुल गांधी पार्टी पर पूरा नियंत्रण चाहते हैं, जिसमें सीनियर नेताओं की दखलअंदाजी न हो। 2018 में जब कांग्रेस ने तीन राज्य फतह किए थे, तब राहुल मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन बुजुर्ग लॉबी के दबाव के आगे उन्हें झुकना पड़ा और कमलनाथ और अशोक गहलोत के नाम पर उन्हें राजी होना पड़ा। आगे चलकर इन दोनों नेताओं ने अपने-अपने राज्यों में जिस तरह सिंधिया और पायलट को किनारे लगाया वो अब इतिहास बन चुका है। सिंधिया पार्टी छोड़कर जा चुके हैं और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार भी जा चुकी है, वहीं पायलट अब तक अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। संगठन के बुजुर्ग नेताओं को छोड़ भी दिया जाए, तो सत्ता पर काबिज रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह और अशोक गहलोत जैसे नेता लगातार राहुल और प्रियंका की अनदेखी करते रहे हैं। अमरिंदर सिंह ने तो पार्टी में रहते हुए ही राहुल-प्रियंका को अनुभवहीन तक कह दिया था।

बहरहाल, कांग्रेस के अंदरखाने ही नहीं, बाहर भी अब यह बात पानी की तरह साफ हो चुकी है कि अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के इस्तीफे की वजह पार्टी की बुजुर्ग लॉबी ही थी और राहुल अब दोबारा उस गलती को दोहराना नहीं चाहते। महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार में सहयोगी शिवसेना ने तो इस विवाद को नया एंगल दे दिया है। शिवसेना के अनुसार राहुल गांधी तो कांग्रेस के किले की मरम्मत करना चाहते हैं और किले के सीलन और गड्ढों को भरना चाहते हैं, लेकिन पुराने लोगों ने उन्हें रोकने और कांग्रेस को डुबोने के लिए बीजेपी से हाथ मिला लिया है। हालांकि शिवसेना को भी लगता है कि जिस तरह बिना सिर के शरीर का कोई फायदा नहीं, उसी तरह बिना अध्यक्ष के कांग्रेस की गत भी नहीं सुधरेगी। हाल के घटनाक्रम के बाद लगता है कि कांग्रेस इस मामले में कोई निर्णायक कदम उठाने की तैयारी में है। पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की विदाई और कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी की एंट्री बुजुर्ग नेताओं को साफ संदेश है कि अब पार्टी में उनकी दाल ज्यादा दिन तक नहीं गलने वाली। 28 सितम्बर को जब ये दोनों नेता कांग्रेस हेडक्वार्टर में राजनीति के इस ‘बड़े जहाज’ पर सवार हो रहे थे, तब कांग्रेस के आधिकारिक ट्विटर हैंडल का एक संदेश भविष्य की रणनीति की झलक दिखा रहा था। यह संदेश था ‘जब युवा एकजुट होकर उठता है, तो तानाशाही बिखर जाती है’। इस संदेश से यह तो स्पष्ट होता है कि कांग्रेस अब युवाओं को अपने साथ जोड़ने जा रही है, लेकिन इस रणनीति का रोडमैप क्या होगा? अकेले युवाओं पर दांव लगाने भर से क्या कांग्रेस बाजी पलटने में कामयाब हो जाएगी? शायद नहीं। कांग्रेस को अपने कमजोर संगठन और चुनाव जीतने वाली सोशल इंजीनियरिंग पर भी गौर करना होगा। पंजाब में दलित मुख्यमंत्री की ताजपोशी शायद ऐसी ही एक शुरु आत है। ऐसी भी खबरें हैं कि पितृपक्ष समाप्त होने के बाद कांग्रेस संगठन को दुरु स्त करने की कवायद भी शुरू हो जाएगी, जिसमें सचिन पायलट, केसी वेणुगोपाल बीबी श्रीनिवास जैसे युवा नेताओं का कद और जिम्मेदारी बढ़ाई जाएगी। सचिन पायलट को गुर्जर बाहुल्य वाले पश्चिमी यूपी की जिम्मेदारी देकर प्रियंका गांधी को दोबारा केंद्रीय राजनीति में सक्रिय किया जा सकता है। इन सब के बीच चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर पर्दे के पीछे से युवाओं को जोड़ने वाले उसी रोल में दिख सकते हैं, जैसे अहमद पटेल कभी कांग्रेस के बुजुगरे को साधे रखते थे।

बहरहाल, सतह पर दिख रही कलह हो या अंदर-ही-अंदर संगठन में बड़े बदलाव की तैयारी, इतना तो साफ है कि कांग्रेस अब बड़े बदलाव की ओर बढ़ रही है। मतभेद, टकराव और निराशा के माहौल में आम कार्यकर्ता से लेकर पार्टी के वफादार नेता नेतृत्व से उम्मीद लगा रहे हैं। ऐसे हालात में सीडब्ल्यूसी की बैठक कांग्रेस के लिए अमृत मंथन का काम कर सकती है, लेकिन तब भी यह सवाल तो पूछा ही जाएगा कि इस मंथन से निकलने वाले विष का घूंट कौन अपने गले उतारेगा? इस सवाल का जवाब इसलिए जरूरी हो जाता है, क्योंकि इसी विष का सेवन कांग्रेस को नई सियासी लाइफलाइन देने का काम करेगा।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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