बदलाव हो खास तो जरूरी है जिम्मेदारी का अहसास

October 30, 2021

कल से स्कॉटलैंड के ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन-2021 शुरू होने वाला है। इस तरह का 26वां ऐसा सम्मेलन होने के कारण इस बार इस आयोजन को कॉप 26 नाम दिया गया है, जिसका मतलब है कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज। इस सम्मेलन में 13 दिनों तक दुनिया भर से 120 देशों के नेता जलवायु परिवर्तन को लेकर अपनी चिंताओं और चुनौतियों को साझा करेंगे।

भारत की तरफ से पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव तो इसमें शामिल होंगे ही, साथ ही ब्रिटेन के दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इसमें भाग लेंगे। भारत के नजरिए से इस सम्मेलन के महत्त्वपूर्ण होने की एक वजह यह भी है।

यह सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है जब भारत में बेमौसम बरसात, बाढ़ जैसी कुदरती आपदाओं का क्रम लगभग नियमित हो चला है। केवल बेमौसम बरसात या बाढ़ ही नहीं, जलवायु परिवर्तन ने तटीय ओवरटॉपिंग के कारण समुद्री किनारों के इलाकों के सामने भी जलमग्न होने का खतरा बढ़ा दिया है। ओवरटॉपिंग समुद्र के ज्वार और तूफान की लहरों के साथ मिलने पर समुद्र के स्तर में होने वाली वृद्धि को कहते हैं। इसके कारण तटीय इलाकों में कटाव के साथ ही यहां का अनूठा इकोसिस्टम भी खतरे में है। भारत में ही लक्षद्वीप और केरल के तटीय इलाकों में भविष्य के संकेत मिलने भी शुरू हो गए हैं। वि मौसम संगठन का अनुमान है कि पिछले एक साल में ही भारत को इन आपदाओं से 87 अरब डॉलर की क्षति पहुंची है। हालांकि इस पैमाने पर चीन को हुआ नुकसान करीब 238 अरब डॉलर का है, जो भारत से लगभग तीन-गुना है। ये आपदाएं जलवायु परिवर्तन का परिणाम हैं, जो भारत के लिए ग्लासगो सम्मेलन को महत्त्वपूर्ण दर्जा देने की एक और बड़ी वजह है।

चीन और भारत पर दबाव
यहां चीन और भारत का विशेष उल्लेख इसलिए है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार कार्बन उत्सर्जन के मामले में ये दोनों देश दुनिया में क्रमश: पहले और तीसरे स्थान पर हैं, और इसीलिए दोनों पर अपने कार्बन उत्सर्जन को नेट जीरो तक लाने का एक समान दबाव है। नेट जीरो का मतलब है कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन या कार्बन उत्सर्जन को एक तय तारीख तक शून्य पर लाना। छह साल पहले पेरिस सम्मेलन में इसे लेकर एक समझौता हुआ था, जिसके अनुसार कार्बन गैसों के उत्सर्जन पर लगाम लगाई जानी थी, ताकि दुनिया भर में बढ़ रहे तापमान को अधिकतम दो सेल्सियस से ज्यादा न बढ़ने दिया जाए। इसके बाद ज्यादातर देशों ने साल 2050 तक कार्बन न्यूट्रल होने की बात कही थी, जबकि चीन ने इसके लिए साल 2060 तक का वक्त मुकर्रर किया है। लेकिन भारत ने अब तक अपने लिए न तो ऐसी कोई मियाद तय की है, न ही इसके लिए संयुक्त राष्ट्र में कोई प्रस्ताव दिया है।

ऐसा इसलिए क्योंकि भारत और काफी हद तक चीन भी अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए मुख्य रूप से बहुत उच्च स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करने वाले कोयले पर निर्भर हैं। भारत दुनिया में कोयले का दूसरा सबसे बड़ा कंज्यूमर है, और अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में तरक्की के बावजूद आज भी देश की कुल 70 फीसद बिजली कोयले से ही बनती है। कोयला भले ही जलवायु में जहर घोल रहा हो, लेकिन झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के लिए यह इस मायने में लाइफलाइन भी है कि यहां प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 40 लाख लोगों के लिए कोयला आजीविका का सबसे बड़ा स्रेत भी है। ऐसे में गौर करने वाली बात है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने की भारत की प्रतिबद्धता और उसके लक्ष्य को रोजगार के अवसर, बिजली उत्पादन और सुदूर क्षेत्रों तक उसकी पहुंच जैसे बुनियादी सवालों से अलग करके नहीं देखा जा सकता। यही हाल चीन का भी है, जिसने अपनी ताजा पंचवर्षीय योजना में ऊर्जा सुरक्षा के लिए कोयले का इस्तेमाल जारी रखने की बात कही है। चीन के महत्त्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में कोयले से बिजली उत्पादन की कई परियोजनाएं शामिल हैं।
 
जीवाश्म ईधन पर भारत की निर्भरता
जीवाश्म ईधन पर निर्भरता को लेकर भारत का पक्ष उन तमाम विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व करता है, जो कार्बन कटौती को लेकर विकसित देशों से तुलना के खिलाफ हैं। आर्थिक सहायता और तकनीक हस्तांतरण जैसे सवालों पर भी विकसित देशों को लेकर संशय की स्थिति है। विकासशील देश चाहते हैं कि विकसित देश पेरिस सम्मेलन में जलवायु वित्तीय सहायता के तहत सालाना 100 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता के प्रस्ताव को न केवल पूरा करें, बल्कि इस कोष में और इजाफा करें। तकनीक का हस्तांतरण भी अहम चिंता है क्योंकि इसके बिना ऊर्जा के परंपरागत स्रेत पर निर्भरता की मजबूरी वाली विकासशील देशों की सफाई भरोसेमंद तर्क लगने लगती है।

मुद्दा वित्त या प्रौद्योगिकी के साथ मदद की प्रतिबद्धता का ही नहीं है, पेरिस सम्मेलन और उससे पूर्व हुई ज्यादातर बैठकों के परिणाम अपेक्षा के स्तर से पिछड़ते दिखे हैं। ज्यादातर विकसित और औद्योगिक देश उत्सर्जन की मात्रा में कमी लाने के अपने ही वादों को पूरा करने में विफल रहे हैं। बीते दो दशकों में जलवायु संकट का बद-से-बदतर होना और मौसमी आपदाओं की घटनाओं में बढ़ोतरी इसके साक्षात प्रमाण हैं। पेरिस समझौते की बड़ी पहल थी कि तमाम राष्ट्र हर पांच साल में नेट जीरो के लक्ष्य की ओर बढ़ने की अपनी कोशिशों का रिपोर्ट कार्ड देंगे, लेकिन समझौते में शामिल 191 में से केवल 113 देशों ने इस जिम्मेदारी को समझा है। अब हालत यह है कि दुनिया के औसत तापमान में बढ़ोतरी को दो डिग्री से नीचे रखना है, तो साल 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 45 फीसद कटौती यानी मौजूदा स्तर का लगभग आधा करना होगा।

2030 की डेडलाइन और भारत
साल 2030 की इस डेडलाइन तक भारत ने भी अपनी बिजली आपूर्ति का 40 फीसद हिस्सा अक्षय और परमाणु ऊर्जा से हासिल करने का लक्ष्य तय किया है। नेट जीरो उत्सर्जन की दिशा में यह लक्ष्य बड़ा योगदान दे सकता है और 2050 से 2060 के बीच इसे हासिल करने की सहायक परिस्थितियों का निर्माण भी कर सकता है। पर्यावरण विशेषज्ञों और सामाजिक विश्लेषकों का आकलन है कि ऐसी स्थिति भारत के लिए फायदेमंद हो सकती है क्योंकि बढ़ती आबादी, गरीबी और मानसून पर निर्भरता जैसे विकास को प्रभावित करने वाले पैमानों का जलवायु परिवर्तन से समानुपातिक रिश्ता है।

लेकिन यह आसान नहीं रहने वाला। भारत जिस अक्षय और परमाणु ऊर्जा से अपनी घरेलू खपत की जरूरत और नेट जीरो की वैिक जिम्मेदारी पूरी होने की उम्मीद कर रहा है, उस पर एक दशक से भी ज्यादा समय से खूब बहस छिड़ी हुई है। एक अनुमान के अनुसार सौर और पवन जैसी अक्षय ऊर्जा से नेट जीरो का 80 फीसद लक्ष्य पूरा किया जा सकता है। बाकी 20 फीसद के लिए कई देशों की चिंताओं और दुरुपयोग के खतरे के बावजूद परमाणु ऊर्जा पर विचार करना ही होगा। हालांकि परमाणु संयंत्र को डिजाइन और तैयार करने के साथ ही इसका सुरक्षा पर भी काफी खर्च आता है। उससे तैयार ऊर्जा भी काफी महंगी होती है। परमाणु कचरे की समस्या भी रहती है। हालांकि आर्टििफशियल इंटेलिजेंस की मदद से इनमें से काफी समस्याएं दूर की जा सकती हैं। नई तकनीक से छोटे-छोटे रिएक्टर तैयार कर इन्हें कहीं पर भी आसानी से लगाया जा सकता है और जरूरत के हिसाब से इनकी संख्या में इजाफा भी किया जा सकता है।

बहरहाल, वापस ग्लासगो पर लौटें, तो बैठक शुरू होने से पहले ही चर्चा गर्म हो गई है कि छह साल पुराना पेरिस समझौता वक्त की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाएगा। इसमें संशोधन की जरूरत है। अब औसत वैिक तापमान में दो डिग्री तापमान की कटौती से बात नहीं बनेगी, बल्कि इसे सुधार कर 1.5 डिग्री तक लाना होगा। इतनी व्यावहारिक चुनौतियों और व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं के बीच यह संभव कैसे होगा? ऐसे में सबसे जरूरी है एक जिम्मेदारी भरा वैिक अहसास। इस समझ का विकसित होना कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे को रोकने के लिए दुनिया का छोटा-सा कदम भी जीवन बचाने में सहायक हो सकता है। ग्लासगो सम्मेलन की कामयाबी इसी बात से तय होगी कि अव्वल तो वहां से निकल कर यह संदेश दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचे और फिर यह जमीन पर भी उतरे।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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