आगे की नीति-राजनीति

November 27, 2021

किसान संगठनों की असहमति के बाद अब तीनों कृषि कानून वापस हो चुके हैं और केंद्रीय कैबिनेट की मुहर लगने के बाद अब इनकी औपचारिक वापसी की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ऐलान के अनुसार 29 नवम्बर से शुरू हो रहे संसद के शीत सत्र में इसे कानूनी जामा पहनाया जाना है। लेकिन शायद इतने भर से काम नहीं चलेगा।

तीनों कानूनों की वापसी के बाद भी आंदोलन समाप्त नहीं हो पाएगा क्योंकि प्रदशर्न कर रहे किसान चाहते हैं कि सरकार मौजूदा व्यवस्था के अनुसार 23 फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की गारंटी दे। सरकार हर साल सीजन के आधार पर 23 फसलों की एमएसपी निर्धारित करती है। इसमें मानसून सीजन की 17 और सर्दियों के मौसम की छह फसलें होती हैं। इसके पीछे कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था है जिसका मकसद किसानों को असामान्य परिस्थितियों में उनकी उपज के दाम में उतार-चढ़ाव से सुरक्षा प्रदान करना है। इन परिस्थितियों की वजह मौसमी आपदा भी हो सकती है और बंपर पैदावार भी। लेकिन फिलहाल कानूनी जनादेश के बिना, सरकार इन फसलों को एमएसपी पर खरीदने के लिए बाध्य नहीं है।

एमएसपी और आर्थिक सुरक्षा
जाहिर तौर पर किसानों की एमएसपी की मांग से आर्थिक सुरक्षा का सवाल जुड़ता है। किसान को उसकी मेहनत का वाजिब दाम मिले, इस सोच से किसे इनकार हो सकता है? और केवल मेहनत ही क्यों, खेती-किसानी लाभ का धंधा बने इसके लिए तो खुद मोदी सरकार पिछले सात साल से लगातार प्रयासरत है। किसानों की आय को दोगुना करने की घोषणा कोई साधारण संकल्प नहीं है। पहले की किसी भी सरकार ने इतना बड़ा जोखिम अपने सिर लेने की हिम्मत नहीं दिखाई। कानून वापसी के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों की एमएसपी की मांग पर विचार करने के लिए अलग से कमेटी बनाने की बात भी कही है।

एमएसपी देने की संभाव्यता
लेकिन क्या सभी 23 फसलों पर एमएसपी दे पाना सरकार के लिए संभव होगा? यह इतना आसान नहीं दिखता क्योंकि अगर ऐसा होता तो पिछली सरकारें कब का इसे लागू कर चुकी होतीं। हमारे कृषि क्षेत्र के कुछ प्रचलित आंकड़ों के आधार पर मैंने इसे समझने की कोशिश की। इन आंकड़ों से यह समझ बनती है कि व्यावहारिक रूप से यह लक्ष्य काफी चुनौतीपूर्ण है। हमारे खेत-खलिहान साल भर में औसतन 30 करोड़ टन खाद्यान्न पैदा करते हैं। सरकारी खरीद नौ करोड़ टन के आसपास बैठती है, जबकि निर्धन परिवारों को सस्ता राशन देने वाली सार्वजनिक राशन पण्राली की जरूरत छह करोड़ टन की है। कुल उपज का एक हिस्सा खुले बाजार में भी पहुंचता है लेकिन फिर भी एक बड़ा भाग बचा रह जाता है जिसका लंबे समय तक सुरक्षित भंडारण मौजूदा इंफ्रास्ट्रक्चर में संभव नहीं दिखता। नतीजा होता है खाद्यान्न की बड़े स्तर पर बर्बादी।

दूसरा सवाल एमएसपी से लाभान्वित होने वाले किसानों की संख्या को लेकर है। छह साल पहले आई शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट बताती है कि देश के केवल छह फीसद किसान एमएसपी पर अपनी फसल बेच पाते हैं। बाकी के 94 फीसद किसानों को तो एमएसपी से कम दाम पर ही समझौता करना पड़ता है। एमएसपी को कानूनी गारंटी इन किसानों के लिए राहत बन सकती है, लेकिन एक हकीकत यह भी है कि इनमें से ज्यादातर किसानों की जोत इतनी छोटी है कि उनसे घर-परिवार के गुजारे लायक उत्पादन ही हो पाता है। फिर अगर सरकार किसानों की 23 फसलों पर एमएसपी की गारंटी की मांग पूरी करती है, तो पिछले पांच साल के उत्पादन और एमएसपी के समीकरण के आधार पर अनुमान है कि हर साल सरकारी खजाने पर साढ़े 10 लाख करोड़ रुपये का भार पड़ सकता है। यह स्वाभाविक रूप से कुछ वजहों के कारण कम भी रह सकता है। एक तो यह कि किसान अपनी सारी फसल नहीं बेचता, घर-परिवार के उपयोग के लिए एक हिस्सा बचा कर रखता है। दूसरा, लोगों के बीच यह धारणा है कि किसान चाहते हैं कि उनकी सारी फसल सरकार ही खरीदे। हालांकि यह सच नहीं है। किसान मांग कर रहे हैं कि उनकी फसल सरकारी मंडी में बिके या खुले बाजार में, सरकार खरीदे या निजी कंपनियां खरीदें, फसल जहां भी बिके, एमएसपी से कम दाम पर न बिके। इसके बावजूद इस तथ्य को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि सरकारी खजाने पर इसका बड़ा दबाव पड़ेगा जिसके असर से देश में चल रही सामाजिक और आर्थिक कल्याण की योजनाएं प्रभावित हो सकती हैं। इस बात का भी अंदेशा है कि हर फसल का मूल्य तय हो जाने से जरूरी खाद्यान्न की कीमतों में भी उछाल आ सकता है जो महंगाई का सबब बन सकता है।

सरकार के पास क्या हैं विकल्प?
लेकिन सरकार के पास विकल्प क्या हैं? कानून वापसी से कृषि क्षेत्र में सुधारों का क्या होगा? केवल कृषि ही क्यों, अन्य क्षेत्रों के सुधार भी क्या इससे अप्रभावित रह सकेंगे? इतना तो स्पष्ट है कि कृषि क्षेत्र में गुणात्मक सुधार लाने के लिए आमूल-चूल बदलाव की जरूरत है। बुनियादी ढांचे से लेकर कोल्ड चेन वेयरहाउस की व्यवस्था तक में आवश्यक बदलाव के लिए बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत है। सरकार किसानों को जो बात नहीं समझा सकने का दर्द बयान कर रही है वो यह है कि कृषि सुधार लागू होते तो इस निवेश की व्यवस्था भी होती और देश की आर्थिक स्थिति पर भी इसका असर दिखता। किसानों की आमदनी बढ़ती तो ग्रामीण भारत की क्रय शक्ति सुधरती जिससे देश के विकास को नई रफ्तार मिलती। अब जबकि कानून रद्द हो गए हैं, तो सरकार को दूसरे विकल्पों पर काम करना होगा। बड़ी आशंका दूसरे क्षेत्रों में लाए जा रहे सुधारों के भविष्य को लेकर भी है। श्रम सुधारों को बेमियादी समय के लिए टाल देना किसी नये सिलसिले की शुरु आत तो नहीं है?
 

खेती-किसानी के मुद्दे और राजनीति
सवाल इस बात को लेकर भी है कि क्या इस आंदोलन के बाद खेती-किसानी के मुद्दे राजनीति को प्रभावित करने की हैसियत में आ गए हैं? भारत वह देश है जहां सरहद पर देश की रक्षा करने वाले वीर जवानों और देश का पेट भरने वाले परिश्रमी किसानों का जयघोष एक सांस में किया जाता है। ऐसे में खेती-किसानी के मुद्दे को देश की राजनीति में प्राथमिकता मिलने का स्वागत ही करना चाहिए। लेकिन यहां मामला चुनावी राजनीति से जुड़ा दिख रहा है। समूचे विपक्ष समेत किसानों का एक धड़ा आरोप लगा रहा है कि अगर आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव नहीं हो रहे होते, तो कृषि कानून भी वापस नहीं होते। यह आरोप राजनीति से प्रेरित भी हो सकते हैं, लेकिन यह भी तथ्य है कि किसान आंदोलन से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति उद्वेलित तो हो ही रही थी। परंपरागत रूप से किसानी करने वाले जाट समुदाय के एकतरफा समर्थन ने बीजेपी को उत्तर प्रदेश में साल 2017 के विधानसभा चुनाव और साल 2019 के आम चुनाव में जीत का परचम फहराने में बड़ा योगदान दिया था। लेकिन इस बार किसान आंदोलन के साथ ही गन्ने के दाम और लखीमपुर खीरी की घटना से नाराजगी के कारण बीजेपी के लिए हालात बेहद चुनौतीपूर्ण बनते दिख रहे थे।

इन राज्यों में चुनावी राजनीति किस दिशा में आगे बढ़ेगी, यह तो आने वाले दिनों में ही साफ हो पाएगा, लेकिन विपक्ष मान रहा है कि इस फैसले से उसके हौसलों को एक नई संजीवनी मिली है। दावा इस फैसले से निकले उस संदेश को लेकर भी है कि लोकप्रिय प्रदशर्नों से मोदी सरकार को भी झुकाया जा सकता है। अनुच्छेद 370 और नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में नये सिरे से उठ रही आवाजें क्या किसी नई परिपाटी की शुरु आत है?


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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