नजरिया

February 18, 2020

जैसे आकाश ने सबको घेरा हुआ है, जैसे जीवन की ऊर्जा सभी में व्याप्त है, वैसे ही कण- कण, चाहे पदार्थ का हो, चाहे चेतना का, परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है।

कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन से कह रहे हैं कि मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पहले इस मौलिक धारणा को समझ लें, फिर सूत्र को समझें। जैसे हम देखते हैं, तो सभी चीजें अलग-अलग मालूम पडती हैं। कोई तत्व नहीं दिखता जो सभी को जोड़ता हो। जब हम देखते हैं, तो माला के गुरिए ही दिखाई पड़ते हैं। माला के भीतर जो पिरोया हुआ सूत का धागा है, जो उन सबकी एकता है, वह हमारी आंखों से ओझल रह जाता है। जब भी हम देखते हैं, तो हमें खंड दिखाई पड़ते हैं, लेकिन अखंड का कोई अनुभव नहीं होता। इस अखंड का जब तक अनुभव न हो, तब तक परमात्मा की कोई प्रतीति भी नहीं है। इसीलिए हम कहते हैं कि परमात्मा को मानते हैं, मंदिर में श्रद्धा के फूल चढ़ाते हैं, मस्जिद में उसका स्मरण करते हैं, गिरजाघर में उसकी स्तुति गाते हैं।

लेकिन फिर भी वह परमात्मा, जिसके चरणों में हम सिर झुकाते हैं, हमारे हृदय में प्रवेश नहीं कर पाता। आश्चर्य की बात कि हम जिस अखंड की खोज में मंदिर, मस्जिद और गुरु द्वारे में जाते हैं, हमारा मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा भी हमें खंड-खंड करने में सहयोगी होते हैं। मंदिर और मस्जिद के बीच भी एक को नहीं देख पाते। हिंदू, मुसलमान और ईसाई के पूजागृहों में भी हमें फासले की दीवारें और शत्रुता की आड़े दिखाई पड़ती हैं। मंदिर भी अलग-अलग हैं, तो यह पूरा जीवन तो कैसे एक होगा? मंदिर अलग नहीं हैं, लेकिन हमारे देखने का ढंग खंड को ही देख पाता है, अखंड को नहीं। जहां भी दृष्टि ले जाते हैं, वहीं टुकड़े दिखते हैं।

वह समग्र, जो सभी को घेरे हुए है, दिखाई नहीं पड़ता। अर्जुन की भी तकलीफ वही है। उसे भी अखंड का कोई अनुभव नहीं हो रहा। उसे दिखाई पड़ता है, मैं हूं। दिखाई पड़ता है, मेरे मित्र हैं, प्रियजन हैं, शत्रु हैं। दिखाई पड़ता है; सिर्फ  एक, जो सभी के भीतर छिपा हुआ है, वह भर दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए कृष्ण और अर्जुन के बीच जो चर्चा है, वह दो दृष्टियों के बीच है। अर्जुन खंडित दृष्टि का प्रतीक है, और कृष्ण अखंडित दृष्टि के। कृष्ण समग्र की, दि होल, वह जो पूरा है, उसकी बात कर रहे हैं और अर्जुन टुकड़ों की। दोनों का जीवन को देखने का ढंग भिन्न है। इस सूत्र में कृष्ण अर्जुन को एक-एक बात गिना रहे हैं कि मैं कहां-कहां हूं। इतना ही कहना काफी होता कि मैं सब जगह हूं।




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