प्रकृति का प्रकोप

June 29, 2020

हे मानव! तू बहुत चतुर व बुद्धिमान बनता है। अत्यधिक सुख-सुविधाएं, धन साधन आदि संग्रह कर लिया।

प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का भी अपने स्वार्थ के लिए खूब दोहन कर लिया। पर कभी यह ध्यान न आया कि जब प्रकृति अपना हिसाब मांगेगी तो क्या होगा। प्रकृति का बाह्य व आंतरिक आपदाएं लाकर अपूर्णताएं संहार कर संतुलन लाने का अपना ही विधान है। बाह्य आपदाएं-भूचाल, बाढ़, तूफान, अग्नि, प्रकोप, ओलावृष्टि, भूस्खलन आदि। आंतरिक आपदाएं-आधि व्याधि ताप विषाद शारीरिक कष्ट आदि, ऐसे रोग जो भौतिक विज्ञान की पकड़ में भी ना आएं। जिस प्रकार परम चेतना का उत्थान निरंतर होता ही रहता है वैसे ही मानव बुद्धि और ज्ञान विज्ञान का भी विकास होता है।

पर जब ज्ञान विज्ञान का दुरुपयोग अहम्युक्त स्वार्थी मनोबुद्धि के अनुरूप होने लगता है तो प्रकृति अपनी वो शक्ति दिखा ही देती है। जिसे समझना या नियंत्रण कर पाना मानवीय क्षमताओं से परे होता है। मानव के इस दर्प को कि वो मानव संरचना व ब्रह्मांड की प्रक्रियाओं के विज्ञान व रहस्य को समझता है एक ही झटके में धरातल पर ला पटकती है। प्रकृति के प्रचंड प्रकोप प्राय: उपाय रहित हैं क्योंकि यही प्रकृति के न्याय व छंटनी करने की शात व्यवस्था है, जिसको प्रकृति सत्यमय व सुपात्र नहीं समझेगी जिसका मानव व प्रकृति की उत्थान प्रक्रिया में कोई योगदान नहीं जानेगी उसे ले ही जाएगी।

क्योंकि मानव की ईश्वर प्रदत्त गुणवत्ता का हृास हो गया है मानव अपनी संकुचित बुद्धि व वातावरण का दास हो गया है। जोड़-तोड़ से मनोनुकूल कार्य करवा लेना उसकी प्रवृत्ति हो गई है। स्वकेंद्रित व स्वार्थी विचारों का पुंज बन गया है मानव। धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक सभी क्षेत्रों को अपने हितों व कुटिल नीतियों अनुसार घुमा दिया है। हवस की सभी सीमाएं लांघ चुका मानव सादगी सरलता सौम्यता व सौहार्द वाला जीवन भूल ही गया है।

प्रकृति ने जिसे ले जाना है उसे कोई भी ना बचा पाएगा, यही प्रारब्ध है। कर्मफल से तो कभी भी छुटकारा नहीं केवल कर्म ही कर्म को काटता है। तो हे मानव! ब्रह्मांड में सकारात्मकता से परिपूर्ण और प्रेममय भावों की सत्यम् शिवम् सुंदरम् ऐसी तरंगों को प्रवाहित कर जो सत्यमय सौन्दर्यमय हों तथा जड़ चेतन व अंतरिक्ष सबके कल्याण हेतु हों। जिससे अनुकूल वातावरण बने और प्रकृति की भांति अनुपम कृतियों के कृतित्व का मार्ग प्रशस्त हो।




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