साधना एवं सिद्धि

September 21, 2020

महर्षि अरविन्द ने अपनी पूर्ण योग रूपी सर्वागपूर्ण पद्धति में बताया है कि जगत और जीवन से बाहर निकलकर स्वर्ग या निर्वाण योग का लक्ष्य नहीं है, जीवन एवं जगत को परिवर्तित करना ही पूर्ण योग है।

सर्वागपूर्ण योग पद्धति के चार प्रमुख अंग हैं- शुद्धि, मुक्ति, सिद्धि और भुक्ति। साधना की प्रथम अनिवार्य आवश्यकता है-शुद्धि। विभिन्न उपदिष्ट साधना प्रणालियों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका क्षेत्र अति विशाल है। अंत: और बाह्य दोनों के परिशोधन का एक प्रयास है।

इससे जीवन को एक काल तक परिवर्तित भी कर लेते हैं। पूर्ण योग में शरीर ही नहीं मन, प्राण, अंत:करण अर्थात सत्ता के समस्त अंगों का परिष्कार होता है। शुद्धि की शुरुआत होती है, समता के दिग्दर्शन से। साधक निम्न प्रकृति की सभी क्रियाओं, विभिन्न द्वन्द्वों, अविद्या के आक्रमण और अपने अज्ञान को इस दृष्टि से देखता है और उसे दूर करने हेतु प्रयत्न करता है। इस शुद्धि के फलस्वरूप मन की शांति, चित्त की स्थिरता, प्राण की एकाग्रता, हृदय की तन्मयता और विकारों से निष्कृति प्राप्त होती है, जो पूर्ण योग की आधार भूमि है।

ऐसे शुद्ध, शांत, चंचल और नीरव आधार पर ही तो भागवत आनन्द, प्रेम, ज्ञान का अवरोहण संभव है। इसका दूसरा अंग है-मुक्ति। इसका तात्पर्य कहीं अन्य लोक-लोकान्तर में न पलायन है, न ही समस्त स्थूल क्रिया-कलापों अथवा प्रकृतिगत चेष्टाओं का परित्याग कर निर्वाण प्राप्त करना। यह आत्मा का, विभिन्न वासनाओं, शरीर बंधन एवं आकषर्णों से पहले हो जाना है। ससीम से असीम की अमरता में अभुक्त होना। इसके दो पद हैं-त्याग और ग्रहण। इसमें एक है निषेधात्मक और दूसरा विधेयात्मक। प्रथम का अर्थ है, सत्ता की निम्न प्रकृति के बंधनों, आकषर्णों से छुटकारा।

द्वितीय भावनात्मक पक्ष का-तात्पर्य है उच्च स्तर आध्यात्मिक सत्ता में समाहित होना, उसकी दिव्य अनुभूतियों में रमण करना। संसार भगवान का लीला क्षेत्र है। इसका पलायन करके कोई भी यथार्थ में इस  योग का योगी नहीं बन सकता है। वासना और अहंता ही हैं अज्ञान की पिटारियां। इनसे ही छुटकारा पाना है। सचमुच निष्काम और निरहंकारी हो अपनी आत्मा को विात्मा के साथ एक करके, उच्चतम दिव्यता को धारण करना। दूसरे शब्दों में, भगवान के समान बनना ही मुक्ति का सम्पूर्ण एवं समग्र आशय है।




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