उल्टा अध्यात्म

October 8, 2020

सच्चा अध्यात्म वह है जो मनुष्य को आदशर्वादिता एवं उत्कृष्टता की विचारणा से ओत-प्रोत करे।

पर आज के प्रचलित तथा कथित अध्यात्म की दिशा बिल्कुल उल्टी है। वह व्यक्ति को भावनात्मक उत्कर्ष की ओर उठाने की अपेक्षा पतनोन्मुख बनाने में सहायक हो रहा है। भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए तीर्थ स्नान, देव-दशर्न, भजन-कीर्तन आदि के कर्मकांड ही पर्याप्त मान लिए गए हैं। लोगों ने सोचना छोड़ दिया है कि इन कर्मकांडों का उद्देश्य भववान की न्यायकारी सर्वव्यापक सत्ता का हर घड़ी स्मरण दिलाते रहना मात्र है। इस स्मरण का प्रयोजन है कि व्यक्ति सब में ईश्वर की झांकी करके हर किसी से सद्व्यवहार में निरत रहे।

यदि देव-दशर्न, भजन-कीर्तन आदि द्वारा सदाचरण एवं परमार्थ की भावना उदय हो तो ही इन कर्मकांडों का महत्त्व है। ‘भाग्यवाद’ एवं ‘ईश्वर की इच्छा से सब कुछ होता है’ जैसी मान्यताएं विपत्ति में असंतुलित न होने एवं संपत्ति में अहंकारी न होने के लिए एक मानसिक उपचार मात्र है। हर समय इन मान्यताओं का उपयोग अध्यात्म की आड़ में करने से तो व्यक्ति कायर, अकर्मण्य और निरु त्साही हो जाता है।

सोचता है, अपने करने से क्या होगा, जो भाग्य में होगा, ईश्वर की इच्छा होगी, वही होगा। पुरु षार्थ की दौड़धूप करने से क्या लाभ? इस प्रकार की मान्यता वाले की प्रगति का क्रम समाप्त हो गया ही समझना चाहिए। देव शक्तियों से लोग अपने में देवत्व के अवतरण की मांग करते, उनकी विशेषताओं, प्रेरणाओं एवं महानताओं को अपने में जागृत करने की आशा रखते तो देव पूजन का प्रयोजन सिद्ध होता।

पर अब तो लोग देव पूजन इस शर्त पर करते हैं कि हमारी अमुक मनोकामना बिना पुरुषार्थ किए अथवा योग्यता उत्पन्न किए ही देव कृपा से अनायास ही पूरी हो जाए। इस विकृति का परिणाम हुआ कि लोग अपनी योग्यता बढ़ाने एवं पुरु षार्थ करने में जो प्रयत्न करते, उन्हें छोड़कर परावलंबी होते चले गए और उन्हें दीन-दरिद्र रहना पड़ा। उल्टी और विकृत मान्यताएं किसी को कुछ लाभ नहीं दे सकतीं, केवल दुर्बलता और हानि ही प्रस्तुत कर सकती हैं। ऐसी मान्यताओं से उबरना चाहिए और सच्चे अध्यात्म का अवलंबन लेना चाहिए।




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