समाज सुधार

October 12, 2020

व्यक्तियों के समूह का नाम ही तो समाज है। हम सब अपने आपको सुधारें तो समाज का सुधार जरूर होकर रहेगा।

कुछ मूढ़ताऐं, नासमझी, अन्ध-परम्पराएं, अनैतिकताएं, संकीर्णताएं, हमारे सामूहिक जीवन में प्रवेश पा गई हैं। दुर्बल मन से सोचने पर वे बड़ी कठिन बड़ी दुस्तर, बड़ी गहरी जमी हुई दिखती हैं, पर वस्तुत: वे कागज के बने रावण की तरह डरावनी दीखते हुए भी भीतर ही भीतर खोखली हैं। हर विचारशील उनसे घृणा करता है। हर समझदार उसके बारे में बिल्कुल भी नहीं विचार करना चाहेगा। पर अपने को एकाकी अनुभव करके आस-पास घिरे लोगों की भावुकता से डर कर कुछ कर नहीं पाता। कठिनाई इतनी सी है।

इसे कुछ ही थोड़े से विवेकशील लोग, यदि संगठित होकर उठ खड़े हों और जमकर विरोध करने लगें तो उन कुरीतियों को मामूली से संघर्ष के बाद चकनाचूर कर सकते हैं, तोड़-मरोड़ कर फेंक सकते हैं। गोवा की जनता ने जिस प्रकार भारतीय फौजों का स्वागत किया वैसा ही स्वागत इन कुरीतियों से सताई हुई जनता उनका करे जो इन अन्ध परम्पराओं को तोड़-मरोड़ कर रख देने के लिए कटिबद्ध सैनिकों की तरह मार्च करते हुए आगे बढ़ेंगे। हत्यारा दहेज कागज के रावण की तरह बड़ा वीभत्स-नृशंस एवं डरावना लगता है। हर कोई भीतर ही भीतर उससे घृणा करता है, पर पास जाने से डरता है।

हर कोई इस मसले पर बात करने से बचता है। हालांकि अगर कुछ साहसी लोग उसमें पलीता लगाने को दौड़ पड़ें तो उसका जड़ मूल से उन्मूलन होने में देर न लगेगी। दास-प्रथा, देवदासी प्रथा, वेश्या नृत्य, बहु-विवाह, जन्मते ही कन्यावध, भूत पूजा, पशुबलि आदि अनेक सामाजिक कुरीतियां किसी समय बड़ी प्रबल लगती थीं, अब देखते-देखते उनका नाम निशान मिटता चला जा रहा है। आज जो कुरीतियां, अनैतिकताएं एवं संकीर्णताएं मजबूती से जड़ जमाये दिखती हैं विवेकशीलों के संगठित प्रतिरोध के सामने देर तक न ठहर सकेंगी। बालू की दीवार की तरह वे एक ही धक्के में भरभरा का गिर पड़ेंगी। विचारों की क्रान्ति का एक ही तूफान इस तिनकों के ढेर को उड़ाकर बात की बात में छितरा देगा। जिस नये समाज की रचना आज स्वप्न सी लगती है, विचारशीलता के जाग्रत होते ही वह मूर्तिमान होकर सामने खड़ी दिखेगी।




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