शिव का अर्थ है ‘शुभ’। शंकर का अर्थ होता है, कल्याण करने वाले। निश्चित रूप से उन्हें प्रसन्न करने के लिए मनुष्य को उनके अनुरूप ही बनना पड़ेगा।
शंकर जी के ललाट पर स्थित चंद्र, शीतलता और संतुलन का प्रतीक है। विश्व कल्याण का प्रतीक और चन्द्रमा सुन्दरता का पर्याय है, जो सुनिश्चित ही शिवम से सुन्दरम को चरितार्थ करता है। सिर पर बहती गंगा शिव के मस्तिष्क में अविरल प्रवाहित पवित्रता का प्रतीक है। भगवान शिव का तीसरा नेत्र विवेक का प्रतीक है, जिसके खुलते ही कामदेव नष्ट हुआ था अर्थात विवेक से कामनाओं को विनष्ट करके ही शांति प्राप्त की जा सकती है।
सपरे की माला दुष्टों को भी गले लगाने की क्षमता तथा कानों में बिच्छू, बर्र के कुण्डल अर्थात कटु एवं कठोर शब्द को सुनने की सहनशीलता ही सच्चे साधक की पहचान है। मृगछाल निर्थक वस्तुओं का सदुपयोग करना और मुण्डों की माला, जीवन की अंतिम अवस्था की वास्तविकता को दर्शाती है। भस्म लेपन, शरीर की अंतिम परिणति दशर्ता है। शिव को नील कंठेर कहते हैं। पुराणों में समुद्र मंथन की कथा आती है। समुद्र से नाना प्रकार के रत्न निकले जिनको सभी देवताओं ने अपनी इच्छानुसार हथिया लिया। अमृत देवता पी गये, वारुणि राक्षस पी गये। समुद्र से जहर निकला।
सारे देवी-देवता समुद्र तट से भाग खड़े हुए। जहर की भीषण ज्वालाओं से सारा विश्व जलने लगा, तब शिव आगे बढ़े और कालकूट पल्रयंकर बन गए और नीलकंठ देवाधिदेव महादेव कहलाने लगे। हमारे कुछ धार्मिंक कहे जाने वाले व्यक्तियों ने शिव पूजा के साथ नशे की परिपाटी जोड़ रखी है। भांग, धतूरा, चिलम गांजा जैसे घातक नशे करना मानवता पर कलंक है, अत: शंकर भक्त को ऐसी बुराइयों से दूर रहकर शिव के चरणों में बिल्व पत्र ही समर्पित करना चाहिए। बेल के तीन पत्र हमारे लोभ, मोह, अहंकार को मिटाने में समर्थ है।
शंकर जी हाथ में त्रिशूल इसलिए धारण किए रहते हैं, जिससे दु:खदायी इन तीन भूलों को सदैव याद रखा जाए। नशेबाजी एक धीमी आत्म हत्या है। इस व्यक्तिगत और सामाजिक बुराई से बचकर नशा निवारण के संकल्पों को उभारना ही शंकर की सच्ची आराधना है। शंकर के सच्चे वीरभद्र बनने की आवश्यकता है। वीरता अभद्र न हो, तो संसार के प्रत्येक व्यक्ति को न्याय मिल सकता है।
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