पंच परमेश्वर को पुन:-पुन: पढ़ते हुए

July 31, 2022

प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ सबसे पहले ‘जमाना’ उर्दू मासिक पत्रिका में मई-जून, 1916 में प्रकाशित हुई थी।

अगले महीने जून-2016 में मासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में यह कहानी हिंदी रूप में आई और प्रेमचंद की कहानियों का संकलन ‘सप्त-सरोज’ (1917) में शामिल हुई। मानसरोवर के सातवें भाग में यह कहानी संकलित है। इस कालजयी कहानी के संवाद का एक अंश-‘क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?’ ने दुनिया भर के पाठकों को उद्वेलित किया है। यह कहानी किसी भी भाषा की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली कहानियों में से एक है और तमाम पाठ्यक्रमों में शामिल।

पंच परमेश्वर न्याय में निरपेक्षता की बात करने वाली कहानी है। न्याय की वेदी पर आसीन व्यक्ति परमेश्वर के समान हो जाता है, और समदर्शी हो जाता है। उसकी व्यक्तिगत अथवा सार्वजनिक स्वार्थ से जुड़ी किसी भी तरह की संकीर्णता उस वेदी पर आसीन होते ही तिरोहित हो जाती है। अलगू चौधरी और जुम्मन शेख, दोनों ही ऐसा करते दिखते हैं, जबकि मानवीय स्वभाव और दुनियादारी इसके ठीक उलट व्यवहार करती है। आज जबकि न्याय की वेदी कटघरे में है, और आए दिन कोलेजियम, इको-सिस्टम, पक्षधरता आदि की ध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं, तब यह कहानी और भी प्रासंगिक हो जाती है।

‘क्या बिगाड़ के भय से ईमान की बात न कहोगे?’ प्रेमचंद की यह कहानी बहुत प्रभावोत्पादक है, और उनकी आदर्शवादी कहानियों में से एक मानी जाती है। कहानी पढ़ते हुए एक बात बारम्बार ध्यान में आती है कि भारत में संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका की व्यवस्था के समय इस परंपरागत न्याय प्रणाली को अछूता क्यों छोड़ दिया। भारतीय समाज अपने विवाद को स्थानीय व्यवस्था से जैसे सुलझा लिया करता था, उसे न्याय प्रणाली में कोई स्थान क्यों नहीं दिया गया? यद्यपि आज भी पंचायत की व्यवस्था है तथापि उसकी न्याय प्रणाली को मान्यता नहीं है। क्यों? पंच परमेश्वर कहानी पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगता है कि प्रेमचंद इस कहानी का विषय कुछ और लेकर चले थे किन्तु किसी क्षण में यह न्याय और पंचायत की प्रणाली की कहानी बन गई। कहानी 7 अनुच्छेद में है और प्रथम अनुच्छेद जुम्मन शेख और अलगू चौधरी की गाढ़ी मित्रता और विद्यार्जन की प्रक्रिया के संबंध में है। ‘जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था।’ यह विश्वास बचपन से ही बना था जब अलगू चौधरी, जुम्मन शेख के पिता जुमेराती के यहां विद्याध्ययन के लिए जाया करते थे।

प्रेमचंद जिस तरह यह शुरुआत करते हैं, वह तथाकथित गंगा-जमुनी तहजीब का आधार बिन्दु है। अलगू चौधरी और जुम्मन के बीच व्यवहार को देखकर कहीं भी प्रतीत नहीं होता कि भारतीय समाज में सांप्रदायिक आधार पर अश्पृश्यता और विभेद जैसी कोई चीज थी/है। अब एक दूसरे बिन्दु से देखें-कहानी में आता है कि जुमेराती जो जुम्मन के पिता हैं; दोनों बालकों, जुम्मन और अलगू को शिक्षा प्रदान करते थे। ‘अलगू ने गुरु जी की बहुत सेवा की-खूब रकाबियां मांजीं, खूब प्याले धोए। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं लेने पाता था क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से मुक्त कर देती थी।’ और जुम्मन? जुम्मन गलत पाठ अथवा पढ़ाई न करने पर छड़ी से पीटे जाते थे। परिणाम यह हुआ कि जुम्मन के ‘लिखे हुए रिहन नामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कलम नहीं उठा सकता था।’ इस प्रकार ‘अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अमोल विद्या ही से सबके आदर पात्र बने थे।’ एक बार प्रश्न उठता है कि क्या जुमेराती शिक्षा देने में भेदभाव करते थे?

अलगू चौधरी काम में उलझाए रखते थे और जुम्मन को पढ़ाई में? उनका बार-बार हुक्का भरना ‘कफन’ कहानी के घीसू-माधव की याद दिलाता है जिनमें से घीसू एक दिन काम करता था तो तीन दिन आराम और माधव आध घंटे काम करता और घंटे भर चिलम पीता। पंच-परमेश्वर कहानी में न्याय का आदर्श है। मित्र होते हुए भी अलगू, जुम्मन का पक्ष नहीं लेते। जुम्मन भी खुन्नस के बावजूद अलगू के पक्ष में फैसला देते हैं। बहुत सोना-सोना सा वातावरण है। मानवीयता, न्याय, सद्भावना, ईमान आदि बातें इस कहानी को पढ़ने पर कौंधती हैं। सब कुछ भला-भला प्रतीत होता है, और सुखद अंत के साथ कहानी पूरी होती है। पुन: पुन: पढ़ते हुए यह कहानी कुछ दूसरी बातों की ओर सोचने के लिए प्रवृत्त करती है। जुमेराती की शिक्षा पद्धति पर थोड़ी बात हुई है।

क्या होता यदि पंच परमेश्वर में अलगू चौधरी और समझू सेठ की दोस्ती और न्याय की कहानी चलती। क्या तब भी यह कहानी उसी तरह प्रभावोत्पादक रहती? यह कहानी हिंदू-मुसलमान समुदाय के दो सदस्यों की कहानी होने से एक अलग भाव बोध को जन्म देती है। उनका साझा भाव कहानी को अधिक प्रभावशाली बनाता है। पंच परमेश्वर कहानी कहानी मात्र नहीं है, मनुष्य के बदलते भाव और उसके अनुरूप किए जाने वाले व्यवहार की गाथा है। यह कहानी बार-बार पढ़ी जानी चाहिए।


डॉ. रमाकांत राय

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