आपातकाल : देश का तानाशाही से सामना

July 1, 2025

25 जून, 1975 की मध्यरात्रि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 352के तहत राष्ट्रीय आपातकाल लागू किया।

इस निर्णय ने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को 21 महीने तक चलने वाले सत्तावादी शासन के दौर में धकेल दिया, जिसके दौरान भारतीय राज्य ने बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां, प्रेस की सेंसरशिप, नागरिक स्वतंत्रताओं का हनन और लोकतांत्रिक संस्थानों को व्यवस्थित रूप से ध्वस्त करने का साक्षात्कार किया। यद्यपि आपातकाल ‘आंतरिक अशांति’ का हवाला देकर लगाया गया था, वास्तव में यह इंदिरा गांधी के अधिकार के प्रति राजनीतिक और न्यायिक चुनौतियों-विशेषकर चुनावी धांधलियों के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनकी सजा-का सीधा जवाब था।

किसी भी लोकतंत्र के केंद्र में उसकी संस्थाएं होती हैं-संसद, न्यायपालिका, प्रेस और स्वतंत्र वैधानिक निकाय। आपातकाल के दौरान, इन्हें व्यवस्थित रूप से कमजोर किया गया। संसद महज एक औपचारिक निकाय बनकर रह गई जो कार्यपालिका की इच्छा को मंजूरी देती थी। भारी बहुमत वाली सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने बिना वास्तविक बहस के कठोर कानूनों और संशोधनों को पारित करवाने के लिए इसका इस्तेमाल किया।

►  न्यायपालिका को आज्ञाकारी बना दिया गया। सरकार ने न्यायिक नियुक्तियों में सक्रिय रूप से हेराफेरी की और विशेष रूप से प्रतिकूल फैसलों के जवाब में न्यायाधीशों का स्थानांतरण किया या उन्हें दरकिनार किया। एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामले में न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना का अल्पमत-जहां सर्वोच्च न्यायालय ने यहां तक कि जीवन के अधिकार के निलंबन को भी बरकरार रखा-न्यायिक स्वतंत्रता का एक दुर्लभ प्रकाश स्तंभ था। प्रेस की स्वतंत्रता लगभग समाप्त कर दी गई। पूर्व-सेंसरशिप के आदेशों और कारावास की धमकियों के माध्यम से अखबारों का मुंह बंद कर दिया गया। विशेष रूप से, द इंडियन एक्सप्रेस ने इस सेंसरशिप के विरोध में एक मूक विरोध के रूप में खाली संपादकीय प्रकाशित किया। 

► चुनाव आयोग और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जैसी संस्थाओं को स्वायत्तता से वंचित कर दिया गया और कार्यपालिका शक्ति को मजबूत करने के लिए उन्हें औजार बना दिया गया। आपातकाल का सबसे भयावह पहलू राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से मौलिक अधिकारों का निलंबन था। अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समानता), 19 (भाषण और अभिव्यक्ति, शांतिपूर्ण सभा करने, संघ बनाने और आवागमन की स्वतंत्रता), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) और 22 (मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध संरक्षण) या तो निलंबित कर दिए गए या निर्थक बना दिए गए। कठोर आंतरिक सुरक्षा अधिनियम और भारत रक्षा नियमावली के तहत, 1,00,000 से अधिक लोगों को बिना मुकदमा चलाए गिरफ्तार किया गया। अधिकांश राजनीतिक विरोधी, ट्रेड यूनियन नेता, छात्र नेता, पत्रकार और कार्यकर्ता थे। निवारक निरोध एक आदर्श बन गया, जिसका उपयोग असंतोष को कुचलने और भय पैदा करने के लिए किया गया। साथ ही, शहरी विकास और जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर :

► जबरन नसबंदी अभियान-जो काफी हद तक गरीबों को निशाना बनाते थे-इंदिरा के पुत्र संजय गांधी के निर्देशन में चलाए गए। बल और धमकी के तहत लाखों लोगों की नसबंदी कराई गई।

► दिल्ली के तुर्कमान गेट में झुग्गी विध्वंस के कारण मौतें और विस्थापन हुआ, जहां सुरक्षा बलों ने विरोध कर रहे निवासियों पर गोली चलाई। यद्यपि आपातकाल अधिकारों के निलंबन और बड़े पैमाने पर नजरबंदी के लिए जाना जाता है, कम स्वीकार किया गया-लेकिन गहराई से परेशान करने वाला-पहलू था विरोध को दबाने और राजनीतिक कैदियों के मनोबल को तोड़ने के लिए शारीरिक और मनोवैज्ञानिक यातना का व्यापक इस्तेमाल। हजारों कार्यकर्ताओं, छात्रों और विपक्षी कार्यकर्ताओं को सिर्फ  जेल में नहीं डाला गया-उन्हें हिरासत में बुनियादी मानवीय गरिमा और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानदंडों के स्पष्ट उल्लंघन में क्रूर और अपमानजनक व्यवहार का शिकार बनाया गया। सबसे भयानक विवरणों में लॉरेंस फर्नाडिस और सुरेश कुमार के हैं, दोनों राजनीतिक कार्यकर्ता और शासन के मुखर आलोचक थे। लॉरेंस फर्नाडिस, जॉर्ज फर्नाडिस के भाई, समाजवादी पार्टी के सक्रिय सदस्य थे और बड़ौदा डायनामाइट मामले में गिरफ्तार किए गए थे, जिसे राज्य के खिलाफ एक विध्वंसक साजिश के रूप में झूठा प्रचारित किया गया था। उन्हें यातनाएं दी गई, बिजली के झटके दिए गए, लंबे समय तक एकांत कारावास में रखा गया। 

यातना के बावजूद, लॉरेंस फर्नाडिस ने उन आरोपों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया जो राजनीतिक रूप से प्रेरित और बेबुनियाद थे। सुरेश कुमार, एक युवा छात्र जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े थे, को बेंगलुरु  में गिरफ्तार किया गया था और उनके साथ कठोर और अमानवीय व्यवहार किया गया था। इसी प्रकार, भय पैदा करने के लिए अनिगनत व्यक्तियों को व्यवस्थित रूप से चिह्नित कर कठोर व्यवहार का शिकार बनाया गया। आपातकाल की घोषणा और उसे बनाए रखने के तरीके ने ही संवैधानिक प्रक्रिया के प्रति बेपरवाही का बेशर्मीपूर्ण नमूना पेश किया। अनुच्छेद 352 के लिए आवश्यक है कि राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह पर कार्य करें। राष्ट्रपति फखरु द्दीन अली अहमद ने केवल इंदिरा गांधी की सिफारिश पर देर रात घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए, जिससे सामूहिक मंत्रिमंडलीय जिम्मेदारी के संवैधानिक जनादेश का उल्लंघन हुआ।

यह एकतरफावाद कानूनों के पारित होने तक विस्तारित हुआ। सबसे जघन्य उदाहरण था 42वें संशोधन का पारित होना, जिसने संविधान को मूल रूप से कार्यपालिका के पक्ष में बदल दिया। 42वें संशोधन को पारित करने के लिए संसदीय समय में हेरफेर, आपातकाल की असंवैधानिक घोषणा, और नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों का व्यापक दमन-ये सभी लोकतांत्रिक शासन के पूर्ण पतन की ओर इशारा करते हैं। भारत आपातकाल से बच गया, लेकिन केवल कुछ बहादुर लोगों के लचीलेपन और इसके मतदाताओं के सामूहिक ज्ञान के कारण। यह एक स्पष्ट चेतावनी के रूप में खड़ा है : स्वतंत्रता की कीमत चिरस्थायी सतर्कता है।

(लेखक केंद्रीय उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्री तथा नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री हैं)


प्रह्लाद जोशी

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