स्वाध्याय

October 7, 2021

आज के समय में मनुष्य के बाहर-भीतर शांति तथा सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए आध्यात्मिक प्रयास ही सार्थक हो सकते हैं।

श्रद्धा, भावना, तत्परता एवं गहराई इन्हीं में समाहित है। हर मानव का धर्म, सामान्य से ऊपर, वह कर्त्तव्य है, जिसे अपना कर लौकिक-आत्मिक उत्कर्ष के मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं। धर्म अर्थात जिसे धारण करने से व्यक्ति एवं समाज का सर्वागीण हित साधन होता है।

आस्तिकता और कर्त्तव्य परायणता को मानव जीवन का धर्म-कर्त्तव्य माना गया है। इनका प्रभाव सबसे पहले अपने समीपवर्ती स्वजन शरीर पर पड़ता है। इसलिए शरीर को भगवान का मंदिर समझ कर, आत्मसंयम और नियमितता द्वारा उसकी सदैव रक्षा करनी चाहिए।

शरीर की तरह मन को भी स्वच्छ रखना आवश्यक है। इसे कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखनी पड़ती है। मन और शरीर के बाद व्यक्ति जिस समाज में रहता है, अपने आपको उसका एक अभिन्न अंग मानना चाहिए। सबके हित में अपना हित समझना सामाजिक न्याय का अकाट्य सिद्धान्त है।

एक वर्ग के साथ अन्याय होगा, तो दूसरा वर्ग कभी भी शांतिपूर्ण जीवनयापन न कर सकेगा। इसलिए इस सिद्धान्त की कभी भी उपेक्षा हितकर नहीं। सुख केवल हमारी मान्यता और अभ्यास के अनुसार होता है, जबकि हित शात सिद्धान्तों से जुड़ा है। संसार एक दर्पण के समान है। हम जैसे हैं, वैसी ही छाया दर्पण में दिखाई पड़ती है। सन्तों, सज्जनों का सम्मान होता है, तो दुर्जन, स्वार्थी, कुकर्मिंयों की घृणा तथा प्रताड़ना की जाती है।

इसी तथ्य को ध्यान में रखकर नागरिकता-नैतिकता, मानवता, सच्चरित्रता, सहिष्णुता-श्रमशीलता जैसे सुणों को सच्ची सम्पत्ति समझ कर इन्हें व्यक्तिगत जीवन में निरन्तर बढ़ाना जरूरी है। शास्त्रों में आत्मनिर्माण हेतु साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा-ये चार साधन बताए गए हैं। ईश्वर उपासना को दैनिक जीवन में स्थान देना साधना है। मनुष्य के पास सर्वोत्तम विशेषता उसकी बुद्धि की ही है। विचारों का सही एवं सुसंस्कृत बनना स्वाध्याय पर निर्भर है।




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