अपनी पहली ही फिल्म ‘अंकुर’ से हिन्दी सिनेमा को सृजनात्मक सिनेमाई अभिव्यक्ति की एक नई, सुंदर और सार्थक पूंजी देने वाले श्याम बेनेगल का अवसान हिन्दी सिने इतिहास के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काल का मानो पटाक्षेप है।
उन्हें भारतीय समानांतर सिनेमा का पिता कहा गया लेकिन वह उससे कहीं ज्यादा थे। हालांकि वह स्वयं समानांतर सिनेमा शब्द से सहमत नहीं थे। 2009 में बीबीसी को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘यह सिनेमा मुख्य सिनेमा से हट कर है, या इस तरह की फिल्मों से मनोरंजन नहीं होता। मैं इस तरह की बातों से कभी सहमत नहीं रहा। हर निर्माता-निर्देशक का फिल्म बनाने का अलग तरीका होता है। मुझे लगा कि आम ढर्रे की फिल्मों में कुछ अलग करने का स्कोप नहीं तो मैंने यह रास्ता चुना।’
गैर-हिन्दीभाषी होते हुए भी हिन्दी फिल्म बनाने वाले श्याम बेनेगल के सिनेमा को किसी खास खांचे में डाल कर वर्गीकृत करना बड़ा मुश्किल है। यह टाइप होकर भी टाइप्ड नहीं है और लाउड होकर भी लाउड नहीं है। समानांतर सिनेमा आंदोलन के दौरान बेनेगल द्वारा निर्देशित फिल्मों-‘अंकुर’ (1974), ‘चरनदास चोर’ (1975), ‘निशांत’ (1975), ‘मंथन’ (1976), ‘भूमिका’ (1977), ‘कोंडूरा’, ‘जुनून’ (1978), ‘कलयुग’ (1981),‘आरोहण’ (1982), ‘मंडी’ (1983), ‘त्रिकाल’ (1985), ‘सुष्मन’ (1987), ‘अन्तरनाद’ (1991), ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ (1993) आदि तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, बल्कि इस दौर के बीतने के बाद भी उन्होंने मम्मो (1994), सरदारी बेगम, द मेकिंग ऑफ द महात्मा (1996), समर (1999), हरी भरी, जुबैदा (2000) जैसी अनेक सार्थक फिल्में भी बनाई। दूरदर्शन के लिए ‘यात्रा’, ‘कथा सागर’, ‘अमरावती की कथाएं’, ‘भारत एक खोज’ जैसे चर्चित धारावाहिक भी बनाए। उन्होंने इक्कीसवीं सदी के आरंभ में ‘सुभाष चंद्र बोस : द फॉरगॉटन हीरो’(2004), ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ (2008) और ‘वेलडन अब्बा’ (2009) फिल्में बनाई और 2014 में ‘संविधान’ जैसा महत्त्वाकांक्षी धारावाहिक लेकर ‘राज्य सभा टीवी’ चैनल पर आए।
बेनेगल के सिनेमा में कथानक, संगीत और नृत्य प्रमुख तत्त्व के रूप में उभर कर सामने आते हैं। देहाती बोली और रहन-सहन की बारीकियों की समझ उनमें है। वे महत्त्वपूर्ण विषयों पर यथार्थवादी शैली में सबकी समझ में आने वाली फिल्में बनाते हैं, जो सामाजिक और समस्यापरक तो हैं पर अंत में समस्या के स्पष्ट समाधान की बजाय प्रतीकात्मक आशावाद को प्रस्तुत करते नजर आते हैं। बेनेगल के पात्र साधारण हैं पर असाधारण चरित्र हैं; जो सामान्य परिस्थितियों में जीते हैं पर असामान्य स्थितियों में रहते हैं। बेनेगल के सिनेमा का मूलभूत तत्त्व है नायक या नायिका की अपने परिवार, समाज, संसार के बंधनों से मुक्त होकर स्वच्छंदता और पूर्णता की चाह।
रिश्तों के दबावों और सामाजिक रूढ़ियों-कुरीतियों से मुक्त करके अपनी जड़ों की विश्वस्त जमीन से असुरक्षित आकाश में स्थापित करने की बेनेगल की यह सोच कइयों को सतही, रूमानी, फंतासी यहां तक कि घातक भी प्रतीत हो सकती है लेकिन उनकी नजर में नारी ही नहीं, यह पूरी मानवता की भलाई के लिए आवश्यक है। बेनेगल की नायिका परिस्थितियों की शिकार होने के बावजूद झुकती और टूटती नहीं है। जानती है कि पुरुषों के चेहरे बदलते हैं, बिस्तर बदलते हैं, पर वे नहीं बदलते। बेनेगल अपनी परंपरा, जड़ों, अपने बीते युग की ओर लौटने के ख्वाब नहीं देखते। किसी स्वर्णिम अतीत का आकषर्ण उन्हें नहीं जकड़ता। आधुनिक सभ्यता की तमाम विकृतियों, नैतिक मूल्यों के हृास के बावजूद वे पिछड़े ग्रामीणों को देश की मुख्यधारा में जोड़ने के पक्षधर हैं। उनकी कई फिल्मों में वर्गसंघर्ष और जातिद्वंद्व भी है पर बेनेगल न जटिल हैं, न ही लाउड। वे नारेबाजी में विश्वास नहीं रखते, फिर चाहे नारेबाजी जनवाद या साम्यवाद के समर्थन में ही क्यों न हो। क्रांति की बजाय बेनेगल का विश्वास सामाजिक चेतना जगाने में है। इस लिहाज से देखे जाने पर बेनेगल का सिनेमा श्रेष्ठ सिनेमा है, जिसमें व्यावसायिक और कला, दोनों सिनेमाओं का मिशण्रहै।
हिन्दी सिनेमा में उनके योगदान के बारे में उनके साथ लगभग 35 साल तक काम कर चुके अभिनेता और पटकथा लेखक अतुल तिवारी उन्हें ‘गेटवे ऑफ इंडियन सिनेमा’ की उपाधि देते हैं। श्याम बेनेगल के साथ ‘समर’, ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ और ‘वेलडन अब्बा’ जैसी फिल्में लिख चुके अशोक मिश्र उन्हें देश की नब्ज समझने वाले ऐसे प्रगतिशील और समर्थ निर्देशक के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने जनता को हर बार नये और रोचक किस्सों से रूबरू कराया। कभी कुछ रिपीट नहीं किया। उन्हें ज्ञानी गुरु की संज्ञा देते हुए वे कहते हैं-जितने सरल और सहज वह थे उतना ही सहज और सरल तथा शुद्ध सिनेमा था उनका जो उनकी तरह ही हमारे दिलों में हमेशा बसा रहेगा।
अजय कुमार शर्मा |
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