भारत से मदद का हाथ, चीन ने छोड़ा साथ

July 17, 2022

कर्ज के जाल में फंसा श्रीलंका अराजकता के दौर से गुजर रहा है। 1948 में आजादी मिलने के बाद यह शायद उसके लिए सबसे कठिन समय है।

श्रीलंका को इस संकट में झोंकने वाले पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे पसंदीदा ठिकाने की तलाश में रोज देश बदल रहे हैं और उनके पीछे जनता के गुस्से की आग में ‘लंका’ जल रही है। दो महीने पहले गोटाबाया के बड़े भाई पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के इस्तीफे के बाद शुरू हुआ जनाक्रोश का ये तूफान देशव्यापी हिंसा और दर्जनों श्रीलंकाई नागरिकों की जान लेने के साथ ही अब कुप्रबंधन, मुफिलसी और तानाशाही के विरोध का अंतरराष्ट्रीय प्रतीक बन गया है।

इस राष्ट्रीय विपदा में श्रीलंका की मदद के लिए कोई देश आगे आया है तो वो भारत है। आजादी के बाद से ही भारत में सरकार किसी भी दल की रही हो, श्रीलंका को लेकर भारत का रवैया हमेशा सहयोगात्मक रहा है। संकट की इस घड़ी में भी भारत अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटा है। एक तरफ जहां आईएमएफ और पश्चिमी देश श्रीलंका की मदद के लिए वहां हालात सामान्य होने का इंतजार कर रहे हैं, वहीं भारत ने बिना देरी मदद का हाथ आगे बढ़ाया है। 22 जून को श्रीलंकाई संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के बयान के अनुसार, भारत ने भोजन, ईधन, उर्वरक और दवाओं के लिए कुल 4 बिलियन डॉलर का ऋण दिया है। भारतीय उच्चायोग की एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, भारत अब तक श्रीलंका को अनुदान के रूप में 600 मिलियन डॉलर समेत विकास कार्यों के लिए कुल 5 बिलियन डॉलर की सहायता दे चुका है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ‘नेबरहुड फस्र्ट’ और सागर पॉलिसी के तहत भी भारत श्रीलंका को दैनिक आवश्यकताओं की चीजें भेज रहा है। वहीं मदद के मामले में देश में राजनीतिक आम राय बनाने के लिए विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने पिछले दिनों कई राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से मुलाकात की है। इस बीच वरिष्ठ अधिकारियों का एक दल कोलंबो जाकर वहां के हालात का अध्ययन और मदद जारी रखने के उपायों पर श्रीलंकाई प्रशासन से चर्चा भी कर आया है।

दूसरी तरफ श्रीलंका से अटूट दोस्ती की कसम खाने वाला चीन किसी भी तरह अपना ऋण निकालने की फिराक में है। इस साल श्रीलंका 26 अरब डॉलर के जिस ऋण का पुनर्भुगतान नहीं कर पाया है, उसमें से चीन का बकाया 7 अरब डॉलर का है। एक अध्ययन के अनुसार, 2006 और जुलाई 2019 के बीच श्रीलंका के बुनियादी ढांचे में चीन ने कुल 12.1 बिलियन डॉलर का निवेश किया। वहीं साल 2021 में श्रीलंका के कुल विदेशी ऋण में चीन का हिस्सा 19.9 फीसद था। बड़ी समस्या यह हुई कि चीन के कर्ज से जो प्रोजेक्ट श्रीलंका में बनाए गए, वह कमाई नहीं कर पाए। ऐसे में उसका विदेशी मुद्रा भंडार लगातार घटता गया, लेकिन श्रीलंका के लिए हालात आसान करने के बजाय चीन ने उसके सामने कड़ी शत्रे रख दी हैं। चीन चाहता है कि श्रीलंका पहले अपने आर्थिक हालात दुरु स्त करे, ऋण के पुनर्निर्धारण की मांग करने के बजाय ऋण चुकाने का इंतजाम करे, लंबे समय से टल रहे चीन-श्रीलंका मुक्त व्यापार समझौते को अंतिम रूप दे और सबसे ऊपर भारत, पश्चिमी देशों और आईएमएफ से दूरी बनाए। श्रीलंका पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए चीन उस पर उधार लेने के बजाय प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का दबाव डालता रहा है। हाल ही में, चीन ने कुछ छोटे सहायता पैकेजों के माध्यम से खुद को श्रीलंका के साथ जोड़ने के दिखावटी प्रयास किए हैं, लेकिन भारत के 4 अरब डॉलर की तुलना में 76 मिलियन डॉलर की इसकी पेशकश महत्त्वहीन हो गई है।

दरअसल, चीन की रणनीति ही ऐसी है कि जिस देश में उसने अपने निवेश बढ़ाए हैं, वहां राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता तेजी से बढ़ी है। इसे लेकर पाकिस्तान और श्रीलंका की तो खूब बात होती है, लेकिन हकीकत यह है कि बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के जरिए आज चीन का ‘कर्ज जाल’ अफ्रीका, मध्य एशिया, यूरोप, दक्षिण अमेरिका और कैरिबियन द्वीपों तक फैल चुका है। अफ्रीका में जहां हर पांच में से एक बुनियादी ढांचा परियोजना में चीन का पैसा लगा हुआ है, वहीं सभी मध्य एशियाई देश आर्थिक रूप से माल के निर्यात और आयात दोनों के लिए चीन पर निर्भर हैं। प्रशांत क्षेत्र में भी कम-से-कम छह देश चीन के कर्जदार हैं तो कैरेबियन और दक्षिण अमेरिका में 19 देश बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के दायरे में हैं। आज श्रीलंका में बने हालात इन सभी देशों और उन लोगों के लिए एक चेतावनी हैं जो भू-राजनीति के इस खतरनाक खेल में चीन का मोहरा बनकर दिवालिया होने का खतरा उठा रहे हैं। तख्तापलट के आखिरी दिनों में गोटाबाया को शायद इस अंजाम का कुछ अंदेशा होने लगा था। इसीलिए उन्होंने श्रीलंका की अनदेखी और फिलीपींस, वियतनाम, कंबोडिया और अफ्रीका में बढ़ती दखलंदाजी को लेकर चीन पर सवाल भी उठाया था। संभव है इस कारण से भी चीन ने इस पर श्रीलंका की दलीलों के बावजूद उसकी कोई बड़ी आर्थिक सहायता या अपने ऋणों के पुनर्भुगतान को स्थगित करने के विचार को कोई तवज्जो नहीं दी। बहरहाल ताजा संकट ने एक बार फिर चीन की पोल खोल कर रख दी है। स्पष्ट रूप से यह भारत के लिए श्रीलंका से अपने उन पुराने संबंधों को दोबारा बहाल करने का सुनहरा अवसर है, जिनमें चीन से श्रीलंका के नये गठजोड़ के कारण गर्मजोशी कम होती दिख रही थी। जहां तक श्रीलंका का सवाल है तो उसके लिए यह निश्चित रूप से संक्रांति काल है। भविष्य का संभावित परिदृश्य यही दिखता है कि विपक्षी दल एक सर्वदलीय सरकार बनाने के लिए एक साथ आएंगे। नये राष्ट्रपति का चुनाव 20 जुलाई को होगा, हालांकि नई सरकार का स्वरूप तय करना आसान नहीं होगा।

फिलहाल प्रधानमंत्री का दायित्व संभाल रहे रानिल विक्रमसिंघे को कार्यवाहक राष्ट्रपति के तौर पर शपथ दिलाई गई है। बाद में एक निर्धारित समय के तहत नई संसद के लिए चुनाव करवाए जाएंगे। हालांकि जो मौजूदा परिस्थितियां है, उनमें खतरा भरपूर है। एक तरफ देश को आर्थिक दलदल से निकालने की चुनौती है, तो दूसरी तरफ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों सत्ता से हटा दिए गए हैं। ऐसे में किसी ठोस राजनीतिक विकल्प के अभाव में हालात बेकाबू हो सकते हैं और श्रीलंका एक असफल राष्ट्र में भी बदल सकता है। बड़ा सवाल यह भी है कि क्या जनता इस नई सरकार को स्वीकार करेगी क्योंकि जब तक किसी सरकार को जनता से वैधता नहीं मिलेगी, तब तक आर्थिक गतिविधियां कैसे सामान्य हो सकेंगी? नई सरकार के लिए निश्चित रूप से यह एक बड़ा काम है, लेकिन विफलता कोई विकल्प नहीं है। बड़ी चिंता तो यह है कि हमारे पड़ोस में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बाद अब एक और देश का भविष्य अधर में है।
 


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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