गुलामी के प्रतीकों से ’आजादी‘

September 11, 2022

आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा देश अब गुलामी के प्रतीकों से भी आजाद हो रहा है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में इसी हफ्ते नाम बदलने के साथ ही उपनिवेशवाद का एक बड़ा प्रतीक राजपथ भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। राजपथ, जिसे पहले किंग्स-वे यानी राजा के मार्ग के नाम से जाना जाता था। इसे मूल रूप से ब्रिटिश राज के दौरान राजा के वायसराय हाउस से निकलकर जाने के लिए तैयार किया गया था। आजादी के बाद जब इसका नाम बदलकर राजपथ किया गया तब भी इसमें से राज करने वालों के पथ का भाव दूर नहीं हो सका था। अब प्रधानमंत्री ने सत्ता के इस प्रतीक को कर्तव्य पथ का नाम देकर इसे सार्वजनिक स्वामित्व और लोकतांत्रिक मूल्यों के सशक्तीकरण की नई पहचान दी है।

पीएम मोदी ने इसी साल 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से ‘पंच प्रण’ लिए थे, जिसमें एक प्रणगुलामी की निशानी को खत्म करना भी है। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में कहा था कि हमें हर उस निशानी को मिटाना है जो अंग्रेजों से जुड़ी है, जो गुलामी की प्रतीक हैं। देश से उस आग्रह के एक महीने से भी कम समय में प्रधानमंत्री इस दिशा में आगे बढ़े हैं। वैसे सच्चाई तो यह है कि सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार ब्रिटिश उपनिवेश काल के चिह्नों को हटा रही है। इस साल की शुरु आत में, बीटिंग द रिट्रीट समारोह के पारंपरिक ईसाई भजन ‘एबाइड बाई मी’ को सदाबहार ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ से बदल दिया गया था। पिछले हफ्ते, भारतीय नौसेना के झंडे पर सेंट जॉर्ज के क्रॉस को शिवाजी के प्रतीक की मुहर से बदल दिया गया था। जनवरी में जब अमर जवान ज्योति को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में लौ में मिला दिया गया था तब भी सरकार की ओर से कहा गया था कि इंडिया गेट पर अंकित नाम केवल कुछ शहीदों के हैं जो प्रथम विश्व युद्ध और एंग्लो-अफगान युद्ध में अंग्रेजों के लिए लड़े थे और इस तरह वे हमारे औपनिवेशिक अतीत के ही प्रतीक हैं।

2014 से लेकर अब तक सरकार अंग्रेजों के बनाए हुए 1,500 से ज्यादा ऐसे कानून समाप्त कर चुकी है जिनकी अब देश को जरूरत नहीं है। इतने समय से ये कानून क्यों चले आ रहे थे, ये अपने आप में एक बड़ा सवाल है। इसके अलावा कई शहरों से लेकर सड़कों के नाम तक भी बदले गए हैं। गुड़गांव अब गुरु ग्राम हो गया है। वहीं कर्जन मार्ग को कस्तूरबा मार्ग, रेस कोर्स को लोक कल्याण मार्ग, औरंगजेब मार्ग को एपीजे अब्दुल कलाम मार्ग, डलहौजी मार्ग को दारा शिकोह मार्ग कर दिया गया। वैचारिक गुलामी की जंजीरों से निकलने की दिशा में पहला व्यापक और सार्थक प्रयास दरअसल हमारी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी है। अफसोस की बात है कि भारत में शिक्षा के मूल तत्व इतने वर्षो तक लॉर्ड मैकाले की काली छाया में बने रहे। यह एक तथ्य है कि औपनिवेशिक युग की शिक्षा सामग्री स्वतंत्रता के बाद भी कई दशकों तक विरासत की तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम पर थोपी गई। इसका परिणाम ये हुआ कि आजादी के 75 साल बाद भी हम आत्म-संदेह और हीन भावना से पीड़ित मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाए हैं। आज वैश्विक राजनीति से लेकर वैश्विक अर्थव्यवस्था तक भारत का महत्त्व ब्रिटेन से कहीं अधिक है, लेकिन मानसिक दासता की बीमारी का इलाज अभी भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। शायद यही वजह है कि देश में एक पक्ष ऐसा भी है जो नाम बदलने और गुलामी के प्रतीक हटाने की प्रक्रिया को निर्थक, समय-धन का अपव्यय और मुद्दों से ध्यान भटकाने की कवायद बताकर इसका विरोध करता रहा है। दलील ये है कि किसी राष्ट्र के इतिहास को मिटाया जाना ठीक नहीं है क्योंकि भले ही यह हमें अपनी गुलामी की याद दिलाता हो, लेकिन इसका भी एक सकारात्मक मूल्य है जो हमें शोषण का डटकर सामना करने और अपने काले अतीत को सुनहरे भविष्य में बदलने की प्रेरणा देता है। आने वाला कल यदि गुजरे हुए कल के संदर्भ में देखा जाएगा, तो यह और भी अधिक सार्थक होगा।

इस सबके बीच गुलामी की यादें मिटाने वाले तमाम फैसले ‘कमजोर अतीत’ के अवशेषों को दूर करने के साथ ही एक नये भारत के आत्मगौरव को पुनर्जीवित कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी के समूचे सार्वजनिक जीवन का विश्लेषण किया जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भारत को लेकर वो जिस तरह की बातें करते हैं, वह एक ऐसे नये भारत की बातें होती हैं जो पहले से कहीं अधिक मजबूत, अधिक आत्मनिर्भर है और जिस पर अब आसानी से किसी तरह की राय नहीं थोपी जा सकती। हर देश की विकास यात्रा में एक समय ऐसा आता है जब देश खुद को नये सिरे से परिभाषित करता है। खुद को नये संकल्पों के साथ आगे बढ़ाता है। आज के भारत के संकल्प और लक्ष्य अपने हैं और अब ये अपने लिए नये प्रतीक भी गढ़ रहा है। गुजरे हुए कल को छोड़कर नया भारत आत्मविश्वास की आभा के साथ आने वाले कल की तस्वीर में नया रंग भर रहा है। तभी तो प्रधानमंत्री ने इसे निरंतर चलने वाली संकल्प यात्रा बताया है।
वैसे देखा जाए तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दरअसल उसी परंपरा को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया है, जिसकी बुनियाद स्वामी विवेकानंद और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय जैसे महान विचारकों ने अपने समय में औपनिवेशिक दृष्टि के प्रभुत्व को चुनौती देकर रखी थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से लेकर श्री अरबिंदो तक लगभग सभी राष्ट्रवादी विचारकों ने इस परंपरा की ज्योति को प्रज्ज्वलित रखा। बापू का ‘हिंद स्वराज’ इसका एक बड़ा प्रमाण है।

बहरहाल आजादी के 75 साल बाद ही सही, लेकिन उपनिवेशवाद और उसके प्रतीक अब चर्चा के केंद्र में हैं। यह आजादी हमें आसानी से नहीं मिली है। देश ने इसके लिए सदियों तक संघर्ष किया, गुलामी की कसक और आजादी की ललक के बीच कई जय-पराजय देखी है, लेकिन आजादी की आकांक्षा को कभी खत्म नहीं होने दिया। संघर्ष और बलिदानों की पराकाष्ठा से हासिल आजादी में बेशक हमने राजनीतिक और आर्थिक उपनिवेशवाद पर काबू पा लिया है, लेकिन सांस्कृतिक और बौद्धिक गुलामी आज भी चुनौती बनी हुई है। इस मायने में हमारी स्वतंत्रता अभी भी अधूरी ही कही जाएगी। इस मानसिकता से मुक्ति में ही सही मायनों में आजादी के अमृत महोत्सव की सार्थकता है।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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