आधुनिक दौर, पुरातनपंथी सोच

August 21, 2022

पिछले हफ्ते प्रसिद्ध उपन्यासकार सलमान रुश्दी पर न्यूयॉर्क में एक साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान जानलेवा हमले ने एक बार फिर दुनिया को झकझोरा है।

75 साल के रुश्दी पर करीब दस बार चाकू से वार किया गया। महज 24 साल के हमलावर हादी मतार को तुरंत घटनास्थल से हिरासत में ले लिया गया। दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पुलिस कही जाने वाली न्यूयॉर्क पुलिस ने हालांकि अभी तक हमलावर की पृष्ठभूमि या हमले की संभावित प्रेरणा को लेकर कोई खुलासा नहीं किया है, लेकिन हादी की मां सिल्वाना फरदौस ने अपने बेटे को लेकर अमेरिकी मीडिया से चौंकाने वाली जानकारियां साझा की हैं। सिल्वाना के मुताबिक कुछ साल पहले तक उसका बेटा भी आम युवाओं जैसा ही था, लेकिन साल 2018 में जब वो परिवार से अलग रह रहे अपने पिता से मिलने लेबनान गया तो सब कुछ बदल गया। हादी वापस लौटा तो वो एक मूडी और अंतर्मुखी युवा में बदल चुका था। अपनी डिग्री पूरी करने और कोई अच्छी नौकरी तलाशने के बजाय उसने खुद को घर के तहखाने में बंद कर लिया। वो इस बात से नाराज था कि परिवार ने उसे छोटी उम्र में ही इस्लाम से परिचित क्यों नहीं करवाया और धर्म पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय शिक्षा की ओर क्यों धकेल दिया?

हादी के सोशल मीडिया अकाउंट से पता चलता है कि उसे शिया चरमपंथ और ईरान के इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स- आईआरजीसी से सहानुभूति थी। रुश्दी से ईरान का ‘नफरती’ कनेक्शन जगजाहिर है। साल 1989 में ईरान के तत्कालीन सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खुमैनी ने रु श्दी के चौथे उपन्यास, ‘द सैटेनिक वर्सेज’ में ईशनिंदा पर उनके खिलाफ फतवा जारी करते हुए दुनिया भर के मुसलमानों से उन्हें मारने का आह्वान किया था। खुमैनी ने वादा किया था कि जो कोई भी रु श्दी और उनकी पुस्तक के प्रकाशकों की हत्या करेगा, उसे शहीद माना जाएगा और वो सीधे स्वर्ग पहुंचेगा। हादी का जन्म 1989 के बाद हुआ है। यह स्वाभाविक लगता है कि हमले से पहले उसने किताब पढ़ना तो दूर,‘द सैटेनिक वर्सेज’ की झलक भी नहीं देखी होगी। फिर भी उसका इतना बड़ा कदम उठाना बताता है कि कट्टरवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं?

रुश्दी की हत्या के प्रयास में जो भी तथ्य सामने आए हैं, उसने धार्मिंक कट्टरता के सवाल को और बड़ा कर दिया है। यह कई लोगों के लिए एक असहज विषय हो सकता है क्योंकि इससे बाकी कई लोगों को इस्लाम की व्यापक निंदा और आम मुसलमानों को कोसने का मौका मिल जाता है। कई ‘जिहादी विरोधी’ वेबसाइट इस विचार का खुलेआम समर्थन करती रही हैं कि पूरी तरह से शांतिपूर्ण और उदारवादी मुसलमान भी एक संभावित खतरा हैं क्योंकि वो खुद या उसकी अगली पीढ़ी कभी भी चरमपंथी बन सकती है। हालांकि यह भी उतना ही सच है कि कट्टरता को लेकर किसी भी धर्म को कठघरे में खड़ा किया जा सकता है लेकिन, इस्लाम के चंद अनुयायी अपने धर्मग्रंथों और इतिहास को आधार बनाकर अन्य धर्मो की तुलना में हिंसक उग्रवाद के प्रति अधिक संवेदनशील दिखते हैं। ईशनिंदा करने वालों या धर्म के खिलाफ जाने वालों को मौत के घाट उतार दिया जाना चाहिए जैसे चरमपंथी विचार किसी अन्य धर्म की तुलना में मुख्यधारा वाली अधिकांश मुस्लिम संस्कृतियों के ज्यादा करीब दिखता है। वास्तविकता यह भी है कि इस्लामी चरमपंथ कई देशों में फैले आतंकी नेटवर्क से जुड़ा मिलता है, और असंतुष्ट युवाओं को आकर्षित करता है। कट्टरवाद के इस विध्वंसक स्वरूप के दूसरे छोर पर हमें जैन धर्म और तीर्थकर महावीर की शिक्षाएं भी दिखती हैं, जिनमें मानव हत्या तो दूर की बात है, जीव और वृक्ष-वनस्पति को भी समझने और महसूस करने जैसे मानवीय गुणों से युक्त मानकर उनका विनाश वर्जित है।

आखिर, आधुनिक दौर में भी कबीलाई सोच को प्रश्रय देने वाली धार्मिंक कट्टरता का हासिल क्या है? पिछले कुछ दशकों में उपलब्धियां दिखाने के नाम पर इस्लामी दुनिया में कुछ विशेष दिखाई नहीं देता। जो देश अभी भी कट्टरवाद की राह पर हैं, उनकी अधिकांश आबादी के लिए जीवन स्तर औसत या उसके नीचे के दर्जे का है। पूर्वी एशिया में शानदार विकास के विपरीत, उनकी आर्थिक वृद्धि मामूली रही है। इसके अलावा, इस्लामी दुनिया के पास अंतरराष्ट्रीय मंच पर कोई महाशक्ति भी नहीं है, और विज्ञान, प्रौद्योगिकी, संस्कृति और खेल के क्षेत्र में इसकी प्रासंगिकता बहुत कम है। बीते दशकों से कट्टर मुस्लिम देशों का आर्थिक प्रदर्शन भी निराशाजनक रहा है। हालिया मानव विकास रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था से तालमेल बैठाने में असफलता के कारण तुर्की, इंडोनेशिया, ईरान जैसे कट्टर इस्लामिक देशों में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार लगभग कुंद हो गई है। ऐसे में संभावनाओं की कमी के कारण अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप काम खोजने में गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहीं नई पीढ़ियों में कट्टरपंथी इस्लाम और जिहादी आतंकवाद की अपील बढ़ जाती है।

जो इन सब बातों से उबर गया, वो तरक्की की राह पर आगे बढ़ गया। साथ-साथ आजाद होने के बावजूद भारत और पाकिस्तान के वर्तमान के फर्क की क्या बात करें, पूर्वी पाकिस्तान के रूप में बदहाल रहा हिस्सा ही आज बांग्लादेश के रूप में पाकिस्तान को तरक्की का सबक सिखा रहा है। वहीं अरब देशों में आर्थिक प्रगति के साथ जीवनशैली और सांस्कृतिक बदलाव दिख रहे हैं। संयुक्त अरब अमीरात में धार्मिंक जीवन मूल्यों को सुरक्षित रखते हुए सामाजिक क्षेत्र में सकारात्मक परिवर्तन की झलक दिखती है। आबू धाबी, शारजाह, दुबई में हजारों वर्ष पुरानी अरब संस्कृति के दशर्न होते तो हैं, लेकिन समय के साथ इन शहरों और यहां दुनिया भर से आकर बसी कॉस्मोपॉलिटन आबादी के आधुनिक जीवन की सफलताएं एवं संपन्नता के भी दशर्न होते हैं।

दुबई के साथ ही सऊदी अरब में बन रही नियोम सिटी का जिक्र यहां जरूरी है। स्मार्ट सिटी के तौर पर विकसित हो रहा यह शहर किसी जादुई दुनिया से कम नहीं है। अगले 50 वर्षो में जब यह पूरी तरह तैयार होगा तब यह दुनिया का ऐसा पहला रेगिस्तानी शहर बन जाएगा जिसमें आधुनिक जमाने की सभी सुविधाएं प्राकृतिक माहौल में मिलेंगी। एक समय में 80 हजार लोग यहां साथ रहकर काम कर सकेंगे और कनेक्टिविटी ऐसी होगी कि दुनिया के 40 फीसद हिस्से में यहां से केवल 6 घंटे में पहुंचा जा सकेगा। इसका विकास सऊदी के क्राउन प्रिंस मो. बिन सलमान के मिशन 2030 का हिस्सा है, जिसका बड़ा मकसद सऊदी को कट्टरपंथी विचारों से पूरी तरह मुक्त करना है। इसके तहत यहां पिछले कुछ समय में तेजी से कई सुधार हुए हैं, जिनमें बच्चों को स्कूलों में सभी धर्म की शिक्षा से लेकर मुस्लिम महिलाओं के लिए पुरु षों पर निर्भरता कम करने के फैसलों के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए अजान में आवाज देते समय मस्जिदों में एक-तिहाई लाउडस्पीकर का ही उपयोग किए जाने जैसे प्रगतिशील उपाय किए गए हैं। ये ऐसे सुधार हैं, जो मुस्लिम देशों में कल्पना से परे लगते हैं, और मुस्लिम जगत को लेकर बनी कट्टरपंथ की छवि को भी तोड़ते हैं। ये बदलाव न केवल सऊदी अरब की तरक्की में बड़ा योगदान दे रहे हैं, बल्कि कट्टर धार्मिंक सोच को सीने से लगाए घूम रहे देशों के लिए भी सबक हैं।

सवाल फिर घूम-फिरकर वहीं आता है कि रुश्दी पर हमले का सबक क्या है? इस घटना का पहला निष्कर्ष तो यही निकलता है कि कट्टरवाद और हिंसा की बातों को अनदेखा कर दिया जाए तो वे और मजबूत होते जाते हैं, जैसे खुमैनी के फतवे के साथ हुआ। यह भी समझना होगा कि इस तरह की हिंसा एक छलावा होती है क्योंकि जब यह सुप्त अवस्था में लगती है, तब भी यह वास्तव में धर्म पर अपनी जान कुर्बान करने वाली अगली पीढ़ी के जुनूनी दिमागों का ब्रेनवॉश कर रही होती है। रुश्दी पर हमला दुनिया को इस बात पर सतर्क रहने की ताकीद है कि कोई भी, कभी भी, कहीं भी इस जुनून का शिकार हो सकता है। धर्म द्वारा वैध की गई किसी भी हिंसा को सामाजिक और नागरिक हस्तक्षेप के बिना दूर नहीं किया जा सकता।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

News In Pics