नया ’यूक्रेन‘ न बन जाए ताइवान!

August 7, 2022

अमेरिकी संसद की स्पीकर नैंसी पेलोसी के ताइवान दौरे के साइड इफेक्ट आने शुरू हो गए हैं।

सप्ताह की शुरु आत में हुए इस दौरे के बाद अब ताइवान का आसमान चीन के लड़ाकू विमानों के कान फोड़ने वाले शोर से गूंज रहा है। मिलिट्री ड्रिल के नाम पर चीन के फाइटर जेट्स ताइवानी एयरस्पेस में बेरोकटोक घुसपैठ कर रहे हैं, वहीं उसके युद्धपोत ताइवान की जलीय सीमा को पार कर गए हैं। इस बार अमेरिका से सीधी टक्कर लेने के मूड में दिख रहे चीन ने दोनों देशों के बीच समुद्री सैन्य सहयोग पर रोक लगाते हुए सुरक्षा समन्वय नीति पर बातचीत को रद्द कर दिया है। शोर तो पेलोसी पर भी प्रतिबंध का है लेकिन ये पाबंदी किस तरह की है, यह चीन ने स्पष्ट नहीं किया है। पेलोसी के ताइवान दौरे से भड़का चीन अब तक 8 अलग-अलग तरह की जवाबी कार्रवाई कर चुका है। वन चाइना पॉलिसी के उल्लंघन का हवाला देकर चीन इस दौरे को उसके आंतरिक मामलों में दखल बता रहा है, जबकि अमेरिका ने इस यात्रा को निजी मामला बताते हुए वन चाइना पॉलिसी पर अपनी प्रतिबद्धता दोहरा दी है।

जवाबी कार्रवाई में दिख रही चीन की बौखलाहट दरअसल, उसकी दुविधा का इजहार भी है। चीन को डर सता रहा है कि अगर उसकी प्रतिक्रिया कमजोर रहती है तो वैश्विक स्तर पर उसका रु तबा भी कमजोर पड़ेगा और अगर वह ताइवान पर कोई बड़ी कार्रवाई कर देता है तो दुनिया भर में चीन विरोधी भावना जोर पकड़ सकती है। यूक्रेन युद्ध को लेकर अमेरिका ठीक इसी तरह के असमंजस का शिकार हो चुका है। लेकिन इस बार अमेरिका को बढ़त हासिल है। चीन के लाख विरोध के बावजूद वो एशिया में अपनी पैठ बढ़ाने वाला दांव चलने में कामयाब हो गया है। चीन के लिए इस मोर्चे पर भी सांप-छुछुंदर वाले हालात हैं। अगर वो चुप बैठता है, तो दूसरे पश्चिमी देशों को भी अमेरिका की राह पर चलने का प्रोत्साहन मिलेगा। इससे ताइवान मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण का खतरा है जो चीन के खिलाफ गोलबंदी को हवा दे सकता है। इससे चीन की साम्राज्यवादी विस्तार की महत्त्वाकांक्षा को बुरी चोट पहुंचेगी। दूसरी तरफ यदि चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच कोई झड़प भी होती है, तो अमेरिका को ‘नाटो के एशियाई संस्करण’ को औपचारिक रूप देने का सुनहरा मौका मिल जाएगा। यह भी देखने वाली बात होगी कि अगर संघर्ष बढ़ता है तो क्या अमेरिका अपनी नौसेना को ताइवान जलडमरूमध्य के पार ले जाएगा। यूक्रेन के विपरीत, ताइवान के आसपास का समुद्र अमेरिकी नौसेना और वायु सेना के लिए उतना दुर्गम नहीं है। सामान्य और नियमित तैनाती के नाम पर ताइवान के पूर्वी छोर पर अमेरिका के चार युद्धपोत पहले से ही गश्त लगा रहे हैं।

तो पड़ोस में तनावपूर्ण हो रहे हालात पर भारत की सोच क्या है? खासकर यदि चीन वास्तव में ताइवान पर हमला करता है तो हमारे पास क्या इसको लेकर कोई योजना या विकल्प है? इतना तो तय है कि ऐसा हुआ तो आंच भारत तक भी आएगी। ताइवान में कोई भी संघर्ष सबसे पहले दक्षिण चीन सागर और मलक्का जलडमरूमध्य को अपनी चपेट में लेगा। ये वो समुद्री क्षेत्र है जहां से भारत का 55 फीसद व्यापार गुजरता है। यह अनिश्चितता भारत के हित में नहीं है - भले ही संकट मूल रूप से चीन के आसपास केंद्रित हो। फिर क्वाड सदस्य के रूप में भी भारत स्वाभाविक रूप से चीन के खिलाफ अभियान में फंस सकता है। हालांकि यूक्रेन में हम भारत का बदला हुआ रूप देख चुके हैं, जिसमें वक्त-वक्त पर भारत ने रूस और अमेरिका के बिना दबाव में आए अपनी शतरे पर समर्थन दिया है।

जिस ‘वन चाइना पॉलिसी’ को लेकर चीन अमेरिका पर अपनी भड़ास निकाल रहा है, वो भारत और चीन के रिश्तों में भी गांठ की एक बड़ी वजह है। हालांकि भारत ने साल 1949 से इक्कीसवीं सदी की शुरु आत तक इस नीति का पालन किया जिसमें ताइवान को चीन का ही हिस्सा मानने और उससे केवल व्यापार और सांस्कृतिक संबंध रखने तक की सहमति थी। लेकिन फिर साल 2008 के बाद से भारत ने अपने आधिकारिक बयानों और संयुक्त घोषणाओं में इससे दूरी बना ली। अरु णाचल प्रदेश में घुसपैठ की चीन की कोशिशें और जम्मू-कश्मीर के साथ ही अरु णाचल प्रदेश के भारतीय नागरिकों को उसका ‘स्टेपल वीजा’ जारी करना इसकी वजह बना। तत्कालीन सरकार की सोच तर्कसंगत थी कि अगर चीन हमारी संवेदनशीलता का सम्मान नहीं कर सकता तो वो भारत से अपने फायदे वाली नीति के समर्थन का नैतिक अधिकार नहीं रखता। अगर चीन चाहता है कि भारत वन चाइना नीति को माने तो पहले उसे एक भारत के सिद्धांत का सम्मान करना ही होगा। इसलिए साल 2008 के बाद के वर्षो में दोनों देशों के राष्ट्र प्रमुखों की बैठकों में इस नीति का जिक्र नहीं मिलता है।

ताजा मामले में भी भारत सरकार ने कोई प्रतिक्रिया देने से परहेज किया है। हालांकि कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने जरूर लोक सभा अध्यक्ष ओम बिरला को पत्र लिखकर मांग की है कि स्पीकर के नेतृत्व में भारतीय सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल को भी ताइवान की इसी तरह की यात्रा करनी चाहिए। लेकिन पेलोसी की यात्रा के बाद इस इलाके में बढ़ा तनाव इस बात की चेतावनी भी है कि दुनिया की दो सबसे बड़ी शक्तियों, अमेरिका और चीन, के बीच की लड़ाई में भारत के लिए सतर्क रहने की कई वजहें हैं। चीन और अमेरिका का आपसी संघर्ष इस क्षेत्र में हथियारों और सैन्य साजो-सामान के जमावड़े को बढ़ावा दे सकता है जो कारोबार के साथ-साथ क्षेत्रीय शांति के लिए भी बड़ा खतरा होगा। भौगोलिक करीबी के कारण भारत पर इसका सीधा प्रभाव पड़ने की आशंका है।

यहां यह सतर्कता भी जरूरी है कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में भारत समेत किसी भी देश के लिए संघर्ष के समर्थन का कोई भी भाव पहले से ही आग लगाने वाली स्थिति को और भड़काने का जोखिम पैदा करेगा। अमेरिका को लेकर अपनी बयानबाजी में आक्रामक दिख रहे चीन ने अब तक की जवाबी कार्रवाई में ताइवान पर ही अपना ध्यान ज्यादा केंद्रित किया है। वैसे भी अमेरिका को सैन्य चेतावनी देने में न तो भूगोल और न ही सैन्य क्षमताएं चीन के पक्ष में हैं। ऐसे में चीन के लिए सबसे आसान काम अपनी खीज एशिया-प्रशांत के देशों पर निकालना होगा जैसा वो ताइवान के साथ करता आया है। भारतीय संदर्भ में एलएसी पर चीन लगातार घुसपैठ की कोशिशों में जुटा रहता है। ऐसे में फिलहाल ताइवान पर भारत का कुछ भी बोलना ‘होम करते हाथ जलाने’ वाली स्थिति में बदल सकता है। बेशक, भारत को ताइवान के साथ आर्थिक और व्यापारिक संबंधों के साथ ही राजनीतिक संबंधों को भी मजबूत करना चाहिए। लेकिन साथ ही हमें चीन को हम पर हावी न होने देने की सतर्कता भी रखनी होगी। धमकाए जाने और धमकाने के लिए उकसावे में अंतर होता है और फिलहाल भारत इस मामले में चुप रहकर इन दोनों परिस्थितियों से बचने की समझदारी दिखा रहा है।

जिनपिंग और बाइडेन इसका ठीक उल्टा कर रहे हैं। दोनों ओर से हो रही तनावपूर्ण बयानबाजी उनके ही अवसरों को सीमित कर रही है। चीन की बयानबाजी ऐसे संकेत दे रही है मानो वो ताइवान के मामले में रेत पर एक लक्ष्मण रेखा खींच देना चाहता है जो अमेरिका समेत दुनिया को साफ-साफ नजर आ जाए। हालांकि अमेरिका और भारत सहित कई अन्य देशों के राजनयिक पूर्व में ताइवान के दौरे कर चुके हैं, लेकिन पेलोसी की यात्रा को लेकर विवाद उनकी वरिष्ठता के कारण है जिसे चीन उकसावे के रूप में देख रहा है। पेलोसी 1997 के बाद से ताइवान की यात्रा करने वाली पहली अमेरिकी स्पीकर हैं। चीन में अगले महीने चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा जलसा भी होने वाला है। ऐसे में पेलोसी के दौरे से पहले अमेरिका को नतीजे भुगतने की धमकी देने के बाद जिनपिंग प्रशासन अगर दौरा हो जाने के बाद कुछ नहीं कर पाता है, तो ये उसके लिए उस जलसे में शर्मनाक स्थिति की वजह बनेगा। बाइडेन की अपनी समस्याएं हैं। अमेरिका में मध्यावधि चुनाव की आहट के बीच उन्हें चीन पर अपनी सख्ती की कथनी को करनी में बदल कर दिखाने का भारी दबाव है। लेकिन दोनों को यह भी समझना होगा कि उनकी घरेलू राजनीति से कहीं अधिक बहुत कुछ दांव पर लगा है। दुनिया पहले ही यूक्रेन में चल रहे युद्ध से जूझ रही है। ऐसे में दोनों तरफ से एक छोटी-सी गलती भी ताइवान में सात दशक की शांति को भंग कर दुनिया को और गहरे संकट की ओर धकेल सकती है।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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