जनता की भलाई से ही होगा राजनीति का 'कल्याण'

February 15, 2020

जनकल्याण की कसौटी पर खरे उतरने का आत्मविश्वास देखिए कि अकेले अरविंद केजरीवाल ही इस सियासी फौज पर भारी पड़ गए। प्रचार के दौरान एक खेमा उन्हें लगातार मजहबी मसलों की गैर-जरूरी बहस में उलझाने की कोशिश करता रहा, तो जवाब में केजरीवाल इस खेमे को काम पर चर्चा के लिए साथ आने का चैलेंज देते रहे। विरोधी खेमा तो केजरीवाल के साथ नहीं आया, लेकिन जनता ऐसी साथ आई कि अब अगले पांच साल तक दिल्ली के कल्याण में कोई रोड़ा नहीं अटका पाएगा। आप की इस प्रचंड जीत का राज पिछले पांच साल के उसके रिपोर्ट कार्ड में छिपा है।

चुनावी राजनीति में जीत का जश्न और हार की मायूसी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वक्त गुजरने के साथ इनकी चर्चा और असर, दोनों ही खत्म हो जाते हैं। लेकिन जनादेश से निकला संदेश लंबी राह भी तैयार करता है, और देश को नई राह भी दिखाता है। दिल्ली चुनाव से निकला संदेश भी इस मायने में बेहद खास है-नाम उसी का होगा जो काम करेगा। पिछले पांच साल में आम आदमी पार्टी (आप) ने अपना पूरा जोर जनकल्याण पर लगाया तो बदले में दिल्ली के मतदाताओं ने उसे फिर से सत्ता की चाबी सौंप दी। ये परिणाम उस विमर्श के लिए बड़ा सबक है, जो तकरीर करता है कि हमारे देश में काम के नाम पर वोट नहीं मिलता। दिल्ली में तो ठीक इसका उल्टा हुआ। वह भी तब जब सामने देश के प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, कई मौजूदा और पूर्व मुख्यमंत्री, 70 से ज्यादा मंत्री और करीब 250 सांसदों की भारी-भरकम फौज खड़ी थी।

जनकल्याण की कसौटी पर खरे उतरने का आत्मविश्वास देखिए कि अकेले अरविंद केजरीवाल ही इस सियासी फौज पर भारी पड़ गए। प्रचार के दौरान एक खेमा उन्हें लगातार मजहबी मसलों की गैर-जरूरी बहस में उलझाने की कोशिश करता रहा, तो जवाब में केजरीवाल इस खेमे को काम पर चर्चा के लिए साथ आने का चैलेंज देते रहे। विरोधी खेमा तो केजरीवाल के साथ नहीं आया, लेकिन जनता ऐसी साथ आई कि अब अगले पांच साल तक दिल्ली के कल्याण में कोई रोड़ा नहीं अटका पाएगा।

आप की इस प्रचंड जीत का राज पिछले पांच साल के उसके रिपोर्ट कार्ड में छिपा है। साल 2015 में 30 हजार करोड़ रुपये के अपने पहले बजट में केजरीवाल सरकार ने एक-तिहाई हिस्सा शिक्षा के लिए और एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य के लिए आवंटित किया। साल 2019 तक आते-आते दिल्ली का कुल बजट दोगुना होकर 60 हजार करोड़ रुपये का हो गया, तो सरकार ने इसका 25 फीसद यानी लगभग 15 हजार करोड़ रुपये शिक्षा के लिए और 12.5 फीसद यानी लगभग साढ़े सात हजार करोड़ रुपये स्वास्थ्य को दिया। इसमें 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली, 20 हजार लीटर तक मुफ्त पानी, 400 से ज्यादा मोहल्ला क्लीनिक और स्कूलों में 20 हजार नये कमरे बनवाने के आप के दावे को जोड़ दिया जाए तो समझ आता है कि किस तरह इस सरकार ने दिल्ली के एक बड़े हिस्से को अपने साथ जोड़ लिया।

गरीबों का मिला साथ
यह हिस्सा उस निम्न और मध्य वर्ग का है, जिसकी औसत आय 18 हजार रुपये से भी कम है। इस वर्ग की चुनौती यह है कि गरीबी में रहते हुए भी उसे गरीबों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ नहीं मिलता। देश में हाल के कई साल में गरीबी नापने का कोई नया पैमाना तय नहीं हुआ है। देश में इस वक्त कितने गरीब हैं, इस पर भी सरकार कोई आंकड़ा देने से बचती रही है। 21वीं सदी की शुरु आत में बनी सुरेश तेंदुलकर समिति ने ग्रामीण क्षेत्रों में 27 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 33 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर रखा था। इस पर विवाद होने के बाद रंगराजन समिति बनाई गई जिसने खर्च की सीमा को बढ़ाते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में 32 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 47 रुपये रोजाना खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से बाहर कर दिया।

सोचिए, इस वर्ग के लिए केजरीवाल सरकार की अच्छी शिक्षा, मुफ्त चिकित्सा, मुफ्त बिजली-पानी कितनी बड़ी राहत है। मोहल्ला क्लीनिक से लेकर गरीब बच्चों के लिए सस्ती और सुलभ शिक्षा के बीच परिवार के लिए बचत कर पाना दिल्ली की गरीब जनता के लिए सपने के सच होने जैसा है। जनता के टैक्स से मिले पैसे को केजरीवाल जनता को ही वापस लौटाते रहे। आलोचक उनके इस मॉडल को मुफ्त सुविधाओं का लॉलीपॉप कहकर खारिज करते रहे, लेकिन दिल्ली की जनता ने इसे समझा भी और सराहा भी। इतना ही नहीं, भ्रष्टाचार पर लगाम लगाकर केजरीवाल मुफ्त सुविधाएं देने के बावजूद सरकार का राजस्व बढ़ाने में भी सफल रहे। केजरीवाल के इस दिल्ली मॉडल ने गुजरात मॉडल की चर्चा को दोबारा केंद्र में ला दिया है। गुजरात मॉडल शासन का वो मॉडल था, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। तब इस मॉडल के तहत गुजरात सरकार प्रदेश की जनता को भरपूर रोजगार, ज्यादा कमाई, महंगाई पर लगाम, अर्थव्यवस्था का विकास, अच्छी शिक्षा और सुरक्षा यानी बेहतर सामाजिक जीवन की गारंटी दिया करती थी। गवर्नेंस के इस मॉडल से ही मोदी न केवल गुजरात की जनता के बीच लोकप्रिय हुए, बल्कि पूरे देश में भी उनकी स्वीकार्यता की बुनियाद मजबूत हुई। प्रधानमंत्री बनने के बाद पहले कार्यकाल में महिलाओं, गरीबों और किसानों के कल्याण की उनकी योजनाओं से इन वर्गो के जीवन स्तर में आया सकारात्मक बदलाव किसी से छिपा नहीं है।

प्रधानमंत्री मोदी और केजरीवाल की ये कामयाबी सत्तर के दशक के उस सीधे-साधे नायक जैसी दिखती हैं, जो बड़ी और नकारात्मक ताकतों से भिड़कर उस व्यवस्था को बदलता है जिसका मकसद आम जनता का शोषण होता था। राहत की बात यह है कि अब जनता खुद बदलाव की अपनी ताकत को पहचान रही है। दिल्ली में आप की जीत इसका इशारा है। पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और झारखंड की सरकारों ने जनकल्याण के इस फॉर्मूले को अपनाने की मंशा जताकर इसके संकेत भी दिए हैं।

कांग्रेस का फिर सफाया
दिल्ली में कांग्रेस लगातार दूसरी बार खाता खोलने में नाकाम हुई है, तो महज वोट शेयर बढ़ना बीजेपी के लिए भी कोई कामयाबी नहीं कही जाएगी। 21 साल के वनवास के बाद सत्ता से उसका फासला पांच साल के लिए और बढ़ गया है। बीजेपी के लिए मंथन की बड़ी वजह यह होगी कि पिछले पंद्रह महीनों में राज्यों की चुनावी लड़ाई में उसका सियासी ग्राफ लगातार नीचे गया है। इस दौरान जिन सात राज्यों में चुनाव हुए हैं, वहां बीजेपी केवल एक राज्य हरियाणा में सरकार बना पाई है, वो भी जेजेपी के समर्थन से। महाराष्ट्र में हाथ आई सत्ता उसके हाथ से निकल गई जबकि मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड और अब दिल्ली में उसे शिकस्त झेलनी पड़ी। दिल्ली में तो यह बीजेपी की लगातार छठी हार है। अब बीजेपी के सामने बिहार और बंगाल की चुनौती है। हालांकि दोनों राज्यों के चुनाव में अभी वक्त है, लेकिन दिल्ली की हार ने बीजेपी की चिंता जरूर बढ़ा दी है।

दिल्ली के चुनाव में बीजेपी का जेडीयू और एलजेपी के साथ मेल बुरी तरह फेल हुआ है। उस पर बिहार में नीतीश सरकार की परफॉर्मेंस और बंगाल में ममता बनर्जी की पॉलिटिक्स का परसेप्शन उसका सिरदर्द बढ़ा सकते हैं। केजरीवाल सरकार ने पांच साल में शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली से जुड़े मुद्दों पर जैसा काम किया है, वैसा नीतीश सरकार चौदह वर्षो में भी नहीं कर पाई है। हालांकि बिहार में आज भी जनता के मुद्दों पर जातीय समीकरण ही भारी पड़ता है। लेकिन बंगाल के हालात और हैं, और वहां ममता ने जिस तरह एनआरसी और सीएए के खिलाफ जबरदस्त मुहिम छेड़ रखी है, उसका फायदा तृणमूल कांग्रेस को मिलता नजर आ रहा है। दिल्ली की ही तरह अगर मुस्लिम समाज ने वहां भी मत-विभाजन रोकने वाली रणनीति अपना ली, तो बीजेपी के लिए कोलकाता जीतना एक बार फिर सपना ही साबित हो सकता है।



हालांकि दिल्ली में हार के बाद अमित शाह की अपने नेताओं के बर्ताव और उनके विवादित बयानों पर प्रतिक्रिया बीजेपी के लिए सार्थक संकेत देती है। अमित शाह कुछ दिनों पहले तक बीजेपी के अध्यक्ष थे और उनका बयान बीजेपी समेत उन दूसरे दलों को भी जनकल्याण पर अधिक ध्यान देने के लिए मजबूर करेगा जो इसे लगभग भुलाए बैठे थे। आप की सत्ता में वापसी जनता के लिए भी संदेश है-वो यह कि जनता अगर चाह ले तो जाति और धर्म की सियासत के बजाय सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य और पानी-बिजली जैसी जनकल्याण की बुनियादी जरूरतें भी सरकार के अहम मुद्दे हो सकते हैं।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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