क्या से क्या हो गया कोरोना काल में

April 26, 2020

अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया, जिसको गले लगा लिया वो दूर हो गया, मशहूर शायर बशीर बद्र ने यह शेर लिखा तो था नजदीकियों पर नसीहत देने के लिए, लेकिन कोरोना के दौर में यह सोशल डिस्टेंसिंग का सबक बन गया है।

गले मिलना तो दूर, दुनिया अब हाथ मिलाने से भी कतरा रही है। अब नजरें तो मिलती हैं, लेकिन हाथ मिलाने के लिए नहीं, एक-दूसरे के सम्मान में हाथ जोड़ने के लिए। भारत का नमस्ते ही अब दुनिया के अभिवादन का जरिया बन गया। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के राष्ट्रपति हों या दो सदियों तक आधी दुनिया पर राज कर चुके ब्रिटिश राजवंश के राजकुमार, फ्रांस के राष्ट्रपति हों या इजराइल के प्रधानमंत्री-कोरोना के कहर से बचने के लिए आज हर कोई भारतीय संस्कृति की इस पहचान का कायल बना हुआ है।

नजरिया केवल मेल-मिलाप के जरिए पर ही नहीं बदला है, जीवन से जुड़ा हर छोटा-बड़ा तौर-तरीका भी बदल रहा है। सफाई की आदत हो या खान-पान की बात, कामकाज का तरीका हो या कारोबार का सलीका, बिना जरूरत घर से बाहर ना निकलने का नियम हो या सार्वजनिक जगहों पर भीड़ का हिस्सा बनने से बचने का संयम, कोरोना की पदचाप कदम-दर-कदम जिंदगी के हर हिस्से पर अपनी छाप छोड़ती जा रही है। सोशल डिस्टेंसिंग का शब्द तो अपने अस्तित्व में आने के बाद से अब तक जितनी बार नहीं बोला गया होगा, उससे ज्यादा पिछले कुछ महीनों में कहा-सुना गया है। हर खास-ओ-आम की जुबान पर चढ़कर कब ये शब्द उनकी जिंदगी का हिस्सा भी बन गया, बहुतों को तो इसका अहसास भी नहीं हो पाया। कोरोना की विदाई के बाद भले ही दो मीटर के इस ‘लक्ष्मण घेरे’ को थोड़ी ढील मिल जाए, लेकिन इतना तय है कि यह इससे कुछ कमतर दूरी के साथ हमारी जिंदगी का स्थायी हिस्सा बना रहेगा। प्राइवेसी की चर्चा में हम अब तक जिस पर्सनल स्पेस की बात करते रहे हैं, उसमें अब इस बात को लेकर भी सतर्कता बरती जाने लगेगी कि इस स्पेस में किस शख्स की एंट्री हो, किसकी नहीं। अमेरिका और यूरोप के ज्यादातर हिस्से में इसका पालन ज्यादा मुश्किल नहीं होगा, लेकिन एशिया में हमारे जैसे घनी आबादी वाले देशों में यह कैसे होगा, ये देखने वाली बात होगी। साल 2011 में भारत का जनसंख्या घनत्व 382 प्रति वर्ग किमी. था। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि यह अब बढ़कर 440 के पार पहुंच चुका है, जो अमेरिका से 13 गुना और ऑस्ट्रेलिया से 113 गुना होता है। चीन दुनिया की सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश है, लेकिन उसकी आबादी का घनत्व भी हमसे करीब तीन गुना कम है।

कोरोना के संदर्भ में आबादी का फैक्टर इस लिहाज से भी अहम है कि इससे केवल सोशल डिस्टेंसिंग के लिए जगह की ही कमी नहीं, बल्कि बार-बार हाथ धोने के लिए पानी की उपलब्धता की चुनौती भी जुड़ती है। साल 2019 के आंकड़ों से पता चलता है कि 17 देश पानी की कमी से जूझ रहे हैं और दुनिया की एक-चौथाई आबादी इन्हीं देशों में रहती है। इस लिस्ट में भारत का नंबर 13वां है। यह हालत इसलिए है कि हमारी आबादी का घनत्व लिस्ट के बाकी देशों के मुकाबले दो से तीन गुना ज्यादा है यानी हमारी आबादी का घनत्व कोरोना या फिर किसी भी दूसरी महामारी से लड़ने में हमें दो मोचरे पर संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल और जबर्दस्त एहतियात बरतने का इशारा करता है। प्राकृतिक और मानवजनित संसाधनों के साथ ही मानव संसाधन की जमावट भी धीरे-धीरे बड़े बदलाव के लिए तैयार हो रही है।

भारत में कामकाजी लोगों का घर में भी ऑफिस का काम लेकर आना आम बात हुआ करती थी। गृहिणियों को इससे काफी शिकायत होती थीं और कई घरों में तो इसी पर महाभारत हो जाया करती थी। कोरोना की मेहरबानी से अब ‘वर्क फ्रॉम होम’ का यह कल्चर ही कामकाजी लोगों का न्यू नॉर्मल बन गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सटीक संकेत दिया है कि अब घर ही नया ऑफिस है और इंटरनेट नया मीटिंग रूम। आने वाले दिनों में दुनिया भर की कंपनियां और संस्थाओं में ‘वर्क फ्रॉम होम’ और ‘वर्चुअल ऑफिस’ जैसे नये तरीके स्थायी विकल्प बन जाएंगे। रिमोट वर्क को सुविधाजनक बनाने के एप और सॉफ्टवेयर्स की मांग में तेज उछाल भी इसी बात का इशारा है। कौन जाने कई संस्थान खर्च में कटौती के लिए अपने कर्मचारियों को सालाना इंक्रीमेंट की जगह घर से काम करने का विकल्प देना शुरू कर दें। स्कूल-कॉलेजों में भी डिस्टेंस लर्निग को अपनाने की शुरु आत हो गई है। लॉकडाउन में बच्चे शिक्षण संस्थान नहीं जा पा रहे हैं, तो स्कूल-कॉलेज ही ऑनलाइन कक्षाओं के माध्यम से बच्चों के घरों तक पहुंच गए हैं।

देश की कई कोचिंग संस्थाएं पहले से ही शिक्षण कार्य में डिजिटल मोड पर काम कर रही थीं और बदले हालात में अब यह औपचारिक शिक्षा का मॉडल भी बनने जा रहा है। वैसे भी स्कूल-कॉलेज में सोशल डिस्टेंसिंग और हाईजीन का उच्चतम स्तर बनाए रखना हमेशा से ही कड़ी चुनौती रहा है। इस तरह के बदलाव आबादी के एक बड़े हिस्से की घर से बाहर निकलने की जरूरत को सीमित करेंगे। इसके अपने फायदे होंगे। कम लोग बाहर निकलेंगे, तो बसों-मेट्रो-ट्रेन में लोगों की भीड़ सीमित होगी, इससे सोशल डिस्टेंसिंग भी आसान होगी और पर्यावरण पर भी कम दबाव पड़ेगा। लॉकडाउन में हम ये फर्क देख भी रहे हैं। परिवहन सीमित होने से हमारे आसपास की हवा शुद्ध हुई है, फैक्टरियों से केमिकल कचरे की निकासी रु कने से गंगा-यमुना जैसी नदियों का पानी निर्मल होकर बहने लगा है। कई महानगरों में तो चिड़ियों की चहचहाहट लोगों को इस मुश्किल समय में फील गुड वाला अहसास करवा रही है।

कोरोना हमें एक ऐसे विकल्प के भी करीब लाया है, जिसका नियमित इस्तेमाल स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला रहा है। यह विकल्प है टेलीमेडिसन का। कोरोना जैसी महामारियों के इलाज और सोशल डिस्टेंसिंग के लिहाज से यह मरीजों खासकर बुजुगरे के लिए वरदान साबित हो रही है। यह वीडियो कॉलिंग की मदद से डॉक्टर से मशविरा लेकर मरीजों की बाहर जाने और लंबी कतारों में खड़े रहने की मजबूरी को खत्म करती है। केवल शहरी ही नहीं, यह सुविधा तो ग्रामीण क्षेत्रों के मरीजों का इलाज करने और उन्हें शहर के डॉक्टरों से जोड़ने का जरिया भी बन रही है। वैसे हकीकत तो यह है कि जिंदा रहने की यह जंग सभी मान्यताओं पर हावी हो चुकी है। पूजा-पाठ के तरीके भी इससे नहीं बच पाए हैं। किसने सोचा था कि नवरात्रि के नौ दिन मंदिर जाए बिना भी पूरे रीति-रिवाज से मनाए जा सकते हैं? कौन कह सकता था कि ईस्टर का जश्न चर्च के बाहर भी मनाया जा सकता है? कौन यकीन कर सकता था कि मुस्लिम परिवार बिना मस्जिद जाए रमजान में रोजा रख सकते हैं, तरावी के बिना और सिर्फ  अपने परिवार के साथ ही इफ्तारी करेंगे? लेकिन यह सब हुआ, हम सबने देखा-जीया। और जरूरत पड़ी तो यह आगे नहीं होगा, यह भी कोई नहीं कह रहा। शादी-ब्याह के साथ भी यही बात है। ये हमारी जिंदगी में किसी त्योहार से कम नहीं होते। लेकिन हिंदुओं के विवाह हों या मुस्लिमों के निकाह, मंदिर-मस्जिद से दूर सारी रस्में ऑनलाइन ही हो रही हैं।

सिर्फ  जिंदगी जीने के तरीके ही नहीं बदले, कोरोना ने मौत की रस्में भी बदल डाली हैं। बदले हालात में अब न तो अर्थी चार कंधों पर शमशान तक जाती है, न चिता के आसपास अपनों की भीड़ जुटती है। श्रद्धांजलि भी मोबाइल पर दी जा रही है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारी जिंदगी पर कोरोना का असर सिक्के के दो पहलू की तरह पड़ा है। कहीं बुरा हुआ है, तो कुछ बहुत अच्छा भी हुआ है। साफ-सफाई और स्वास्थ्य के लिए जागरूकता बढ़ी है, तो खांसने-छींकने को मौसमी बीमारी बताकर नजरअंदाज करने की जगह गंभीर पूछ-परख ने ले ली है। एक ओर कोरोना ने महामारी की शक्ल में दुनिया भर में इंसानों पर करारा प्रहार किया है, तो वहीं इसने अपनों से करीबी जुड़ाव के साथ ही दूरी की मर्यादा का महत्त्व बताया है। इतना ही नहीं, पड़ोसियों से बरसों से बंद बोलचाल शुरू करने का पाठ भी पढ़ाया है। इसे इस तरीके से भी समझा जा सकता है कि मानवता की बेहतरी के लिए कोरोना ने गंभीर संकट पैदा कर हमें बदल जाने का सबक सिखाया है।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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