रिश्तों की डोर, नई मजबूती की ओर

March 6, 2021

भारतीय सेना के साहस और संकल्प से भारत की उत्तरी सीमाएं अब पूरी तरह शांत और सुरक्षित हैं।

पिछले साल जून में गलवान घाटी में झड़प के बाद भारतीय और चीनी सैनिकों ने बिना किसी अतिरिक्त नुकसान के पैंगोंग त्सो में डिसएंगेजमेंट की प्रक्रिया को पूरा कर लिया है। सरकार तो इसे हमारी सेना की कामयाबी बता ही रही है, ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो मान रहे हैं कि यह हार के जबड़े से जीत निकाल लाने वाला करिश्मा था। विवादित इलाके से लौटते चीनी सैनिकों और टैंकों की तस्वीरों ने दुनिया को यह सिखाया है कि चीन के विस्तारवाद पर लगाम कैसे लगाई जा सकती है।

कइयों के लिए तो यह अभी भी पहेली बनी हुई है कि कोरोना काल में जब घरेलू मोर्चे पर तमाम तरह की सप्लाई चेन टूट चुकी थीं, तब भी हमारी सेना सामरिक ठिकानों तक जरूरी रसद पहुंचाने के साथ ही चीन की चालाकी का मुंहतोड़ जवाब कैसे दे पा रही थी? इसका संदेश केवल चीन तक ही सीमित नहीं रहा, दुनिया के उन तमाम हिस्सों तक भी पहुंचा, जो चीन की घात लगाकर मात देने वाली रणनीति के या तो शिकार हो चुके हैं या उसकी काट की तलाश में हैं। जो देश चीन से मुकाबले का माद्दा रखते हैं, वो खुलकर भारत के समर्थन में भी आए। अंतरराष्ट्रीय समर्थन की अगुवाई अमेरिका ने की और इस मामले में डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडेन समेत अमेरिकी कांग्रेस ने एक सुर में चीन की ‘हरकत’ को नाकाबिल-ए-बर्दाश्त बताते हुए भारत के साथ करीबी रक्षा सहयोग का इरादा जताया था।

इस पृष्ठभूमि को जानना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि अब अमेरिका ने इस इरादे को औपचारिक जामा भी पहना दिया है। इस हफ्ते अमेरिका की अंतरिम राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को जारी करते हुए राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस पर आधिकारिक मुहर लगा दी है। 24 पन्नों के इस दस्तावेज में अमेरिका ने दुनिया में शक्ति संतुलन बदलने की चिंता के साथ चीन को इसका उत्प्रेरक बताया है और इससे मुकाबले के लिए भारत जैसे सहयोगी देशों की जरूरत को महत्त्वपूर्ण बताया है। इस दस्तावेज में इसके ताइवान और हांगकांग में मानवाधिकारों का समर्थन और शिनिजयांग के साथ तिब्बत में मानवाधिकारों के हनन का विरोध जैसी अमेरिकी प्राथमिकताएं भी शामिल हैं। इससे इतर अमेरिका वन चाइना पॉलिसी को लेकर समर्थन पर भी दोबारा विचार कर रहा है। मोटे तौर पर इस सबसे यही इशारा मिलता है कि आने वाले दिनों में अमेरिका यह सुनिश्चित करना चाहता है कि वैश्विक एजेंडा चीन नहीं, बल्कि वह खुद तय करेगा और यह दस्तावेज इसके एक्शन प्लान की बुनियाद तैयार करेगा।

इस दस्तावेज से दो बातें खास तौर पर निकल कर आई हैं पहला-यह कि अब अमेरिका भी मान रहा है कि दुनिया एक-ध्रुवीय नहीं रह गई है और दूसरी- यह कि बराक ओबामा के समय शुरू की गई उसकी ‘एशिया की धुरी’ बनने की मुहिम भारत के बगैर पूरी नहीं हो सकती, लेकिन क्या यह कोई नई शुरुआत है? शायद नहीं, लेकिन यह उस रणनीति की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति की शुरुआत जरूर है, जिस पर अमेरिका पिछले कुछ समय से गोपनीय तरीके से काम कर रहा था। दो महीने पहले का समय याद कीजिए, जब भारत और चीन के बीच तनाव चरम पर था और अमेरिका में सत्ता हस्तांतरण हो रहा था। उस वक्त अमेरिका ने ट्रंप प्रशासन के समय इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के लिए तैयार की गई एक कथित गोपनीय रिपोर्ट को सार्वजनिक किया था। दस पन्नों की उस रिपोर्ट का लब्बोलुआब भी यही था कि चीन इस इलाके में अमेरिकी गठबंधन को कमजोर कर खुद बड़ा प्लेयर बनना चाहता है और सैन्य, खुफिया एवं राजनयिक समर्थन से भारत को मजबूत बनाकर चीन की बढ़ती ताकत को संतुलित किया जा सकता है।

हमारे लिहाज से जो बात ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, वो यह कि यह रणनीति केवल सोच बनकर कागजों में कैद नहीं रही है, बल्कि अमेरिका इसे लगातार अमलीजामा पहना रहा है। पिछले साल अक्टूबर में नई दिल्ली में दोनों देशों के रक्षा एवं विदेश मंत्रियों की 2+2 मंत्री स्तरीय की बैठक इसका बड़ा प्रमाण है, जिसमें बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन अग्रीमेंट यानी बेका के तहत अमेरिका ने भारत की सीमाएं सुरक्षित रखने की तकनीक साझा की थी। इसके बाद नवम्बर में एलएसी की निगरानी के लिए सी-गार्जियन ड्रोन और दिसम्बर में दुनिया के सबसे बड़े मालवाहक जहाज हरक्यूलिस के हार्डवेयर और सेवा से जुड़ी खरीद पर मुहर इसी रणनीति का विस्तार थी। नवम्बर में ही सुस्त पड़े क्वॉड में नई जान फूंकने के लिए मालाबार में युद्धाभ्यास हुआ, जिसमें पहली बार चारों देश-भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया एक साथ शामिल हुए। ताजा संकेत यह है कि अमेरिका की चीन नीति में क्वॉड अब एक निर्णायक भूमिका में दिख सकता है। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलीवन ने मुक्त और समृद्ध इंडो-पैसिफिक के लिए क्वॉड को जरूरी बता कर इसका इशारा भी कर दिया है। ऐसे संकेत भी हैं कि राष्ट्रपति जो बाइडेन अगले महीने क्वॉड नेताओं के साथ शिखर वार्ता भी कर सकते हैं। यह हमारे लिए एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम हो सकता है, क्योंकि एलएसी पर नियंत्रण बहाली की सराहनीय सफलता के बावजूद सरहदों का शांत दिखना मृग-मरीचिका जैसा ही होता है। सीमाओं का यह लगभग शात सच हमारी आर्थिक और सामाजिक विकास की योजनाओं के आड़े आता रहा है। अब तक इसके लिए पाकिस्तान अकेला जिम्मेदार होता था, लेकिन डोकलाम से लेकर गलवान के बाद अब चीन भी इसमें हिस्सेदारी करता दिख रहा है और वो भी इस हद तक कि डिसएंगेजमेंट के अगले चरणों में मामूली-सी चूक भी दोनों देशों को सरहद पर एक बार फिर आमने-सामने ला सकती है। हालांकि सुरक्षा के तराजू पर देश की हर सीमा का अपना खास ‘वजन’ होता है, लेकिन तुलनात्मक रूप से देखें, तो एलओसी के बजाय एलएसी अब ज्यादा बड़ा हलचल वाला क्षेत्र बन गया है। वैसे भी पाकिस्तान जिस तरह अपनी घरेलू राजनीति में उलझा हुआ है, वैसी हालत में उसका खुद का भविष्य अनिश्चित दिख रहा है।


चीन को लेकर अमेरिका की नई नीति उसकी मुश्किलें और बढ़ाएगी, क्योंकि अब उसके लिए दो नाव की सवारी करना आसान नहीं रह जाएगा। बाइडेन प्रशासन ने साफ संकेत दे दिए हैं कि चीन से संबंध फिलहाल तल्ख बने रहेंगे और उन देशों और गठबंधनों को वरीयता मिलेगी, जो चीन को रोकने में उसका साथ देंगे। ऐसे में जो अमेरिका की जरूरत है, वो कई अथरे में हमारी भी जरूरत है। द्विपक्षीय संबंधों की मजबूती देश के अंदर समृद्धि लाने के साथ ही सीमाओं को सुरक्षित रखने में भी मददगार साबित हो सकती है। इन सब के बीच बड़ी राहत इस बात की है कि नये प्रशासन में भारत-अमेरिकी संबंधों पर निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दोस्ती के प्रभाव को लेकर छाए संशय के बादल भी अमेरिका की इस नई सुरक्षा नीति के सामने आने के बाद अब पूरी तरह छंट गए हैं।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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