पुरानी दोस्ती, नई कहानी

September 19, 2021

वैश्विक जगत में भारत का अस्तित्व संबंधों से अधिक नीतियों पर आधारित है, वह नीतियां जो वेदों की ऋचाओं से करीब 7 दशक के अध्ययन से प्राप्त हुई हैं, लेकिन यह भी सच है कि, नीतियों को विस्तार विश्व पटल पर भूमिका बांधने से ही मिला है, और अब जबकि विश्व की भू-राजनीतिक परिस्थिति में परिवर्तन देखा जा रहा है, तब इस भूमिका को और अधिक विस्तार देने की आवश्यकता महसूस होने लगी है।

सवाल यह है कि, भूमिका को विस्तार देकर बदलते समीकरणों को स्थायित्व देगा कौन? भारत के संबंधी क्वाड के देश या सुपर पावर का बाना धारण करने वाला अमेरिका? विश्व भर में जोर पकड़ती इन चर्चाओं के बीच अफगानिस्तान को लेकर भारत अब फ्रंटफुट पर खेल रहा है।

इस सप्ताह शुक्रवार को शंघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक में प्रधानमंत्री ने अफगानिस्तान में तालिबान सरकार का समर्थन कर रहे चीन और पाकिस्तान जैसे देशों को इशारों-इशारों में कड़ी फटकार लगाई। शुक्रवार को प्रधानमंत्री का जन्मदिन भी था, इसलिए चीन-पाकिस्तान इस फटकार का बुरा न मानकर इसे उस अवसर का रिटर्न गिफ्ट भी मान सकते हैं। वैसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 24 सितम्बर से शुरू हो रहे अमेरिका के तीन दिनों के दौरे में अभी इन दोनों देशों के हिस्से में और भी फटकार आने वाली है, लेकिन पहले बात शंघाई सहयोग संगठन के शिखर बैठक की। प्रधानमंत्री ने इसमें एकदम खुले शब्दों में कहा कि कट्टरपंथ जिस तेजी से दुनिया में बढ़ रहा है और हाल में अफगानिस्तान में जिस तरह संवाद के बजाय हिंसा के दम पर सत्ता हस्तांतरित हुई, उससे दुनिया में शांति, सुरक्षा और आपसी भरोसे को लेकर बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है। अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार को समर्थन दे रहे देशों को उन्होंने अस्थिरता के लिए जिम्मेदार ठहराया। प्रधानमंत्री के इस संबोधन के समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और चीन के राष्ट्रपति शी जिनिपंग दोनों बैठक में मौजूद थे। काबुल में चीन का दूतावास पहले की तरह ही काम कर रहा है और जिनिपंग बीजिंग में तालिबान के नेताओं से मिल भी चुके हैं। वहीं, अफगानिस्तान में पाकिस्तान का दखल अब कोई राज की बात नहीं रह गई है।

अफगानिस्तान में जो हो रहा है, वो ताजिकिस्तान, ईरान समेत कई देशों की चिंताएं बढ़ा रहा है। खबर है कि अल-कायदा वहां नये सिरे से सक्रिय हो चुका है। इससे आतंकवाद को लेकर रूस की चिंताएं इतनी बढ़ गई हैं कि उसकी तालिबान नीति में यू-टर्न आ गया है, लेकिन अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के अचानक वापस लौट जाने का सबसे ज्यादा खमियाजा तो भारत को ही उठाना पड़ सकता है। इसीलिए प्रधानमंत्री के अमेरिकी दौरे के एजेंडे में यह बात प्रमुखता से शामिल भी की गई है। अमेरिका ही क्यों, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे ताकतवर देश भी अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का समर्थन करने में हिचकेंगे और यह पाकिस्तान और चीन के लिए एक बड़े सबक जैसा होगा। 24 सितम्बर को क्वाड के शिखर सम्मेलन के बाद प्रधानमंत्री मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के बीच 50 मिनट की वन-टू-वन बैठक होगी। दोनों के बीच यह पहली आमने-सामने की भेंट होगी। इसके पहले की पिछली तीन मुलाकातें वर्चुअल थीं। क्वाड की बैठक में जहां कोविड वैक्सीन निर्माण, महत्त्वपूर्ण टेक्नोलॉजी और जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों पर बात होगी, वहीं द्विपक्षीय वार्ता का फोकस अफगानिस्तान, पाकिस्तान और चीन पर रहेगा। कोरोना के प्रसार के बाद प्रधानमंत्री पहली बार कोई विदेशी दौरा कर रहे हैं। कोविड लॉकडाउन के प्रोटोकॉल को खुद पर भी लागू करते हुए उन्होंने इस अवधि में विदेशी दौरों से परहेज बरता है। भारत के नजरिए से प्रधानमंत्री का यह दौरा बेहद जरूरी भी हो गया था, क्योंकि अमेरिका की नीतियों से भारत सीधे-सीधे प्रभावित होता दिख रहा है। अफगानिस्तान से सेना वापस बुलाकर अमेरिका अब अपनी पूरी शक्ति चीन पर लगाना चाहता है। दोनों ही मामलों में भारत के हित जुड़े हुए हैं अफगानिस्तान से आतंकियों को मिली खुली छूट का खतरा है, तो दूसरी तरफ चीन से विस्तारवाद की चुनौती।

जाहिर तौर पर इस बातचीत का एक एजेंडा पाकिस्तान भी रहेगा। हाल ही में अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने पाकिस्तान से अपने रिश्तों के नये सिरे से मूल्यांकन की बात कही है। इस बयान में गौर करने वाली बात यह है कि इसके लिए अमेरिका ने इस बात को आधार बनाया है कि अफगान-तालिबान मसले पर पाकिस्तान की दिलचस्पी वाले कई क्षेत्र ऐसे हैं, जो अमेरिका के लिए असुविधाजनक हैं। प्रधानमंत्री मोदी यकीनन जो बाइडेन से यह जानने के लिए उत्सुक रहेंगे कि अमेरिका क्या वाकई पाकिस्तान से अपने रिश्तों को लेकर कोई नई रणनीति बनाने जा रहा है या फिर ब्लिंकन का ये बयान भी पाकिस्तान को समय-समय पर घुड़की देते रहने वाली पुरानी अमेरिकी परंपरा की रस्म अदायगी भर है। अमेरिकी दौरे पर भारत के लिए एक और महत्त्वपूर्व विषय रहेगा ‘काउंटिरंग अमेरिकाज एडवर्सरीज थ्रू सेंक्शंस एक्ट’ (कास्टा) से जुड़ी अनिश्चितता को दूर करना।

रूस से कोई बड़ी रक्षा खरीद करने वाले देश पर अमेरिका इसी कानून के तहत प्रतिबंध लगाता है। कुछ दिन पहले अमेरिका ने तुर्की पर इसी कानून के तहत कार्रवाई की थी, जबकि वो नाटो में उसका सहयोगी है। भारत ने ट्रंप प्रशासन की धमकियों को नजरअंदाज करते हुए अक्टूबर 2018 में रूस से एस-400 वायु रक्षा मिसाइल प्रणाली की पांच इकाइयों के लिए पांच अरब डॉलर का रक्षा समझौता किया था और पिछले साल ही पहली किस्त के तौर पर 800 मिलियन डॉलर रूस को दे भी दिए गए। हालांकि अमेरिका कह चुका है कि कास्टा का उद्देश्य दोस्त देशों पर कार्रवाई नहीं है, लेकिन भारत कानून की तलवार को लटकाए रखने के बजाय स्पष्टता चाहेगा कि इस बयान में जिन दोस्त देशों का संदर्भ दिया गया है, उसमें वह शामिल है या नहीं। वैसे भी भारत की यह खरीद अपनी सरहदों की चौकसी बढ़ाकर चीन को रोकने के मकसद से की गई है। क्वाड से लेकर ऑकुस तक का यही उद्देश्य भी है और अमेरिका इन दोनों ही समूहों में शामिल है। क्वाड तो खैर अपने गठन से ही चीन की आंख की किरकिरी बना हुआ है, लेकिन ऑकुस अपेक्षाकृत नया समूह है। अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया ने हाल ही में ये साझा मंच तैयार किया है। इसके जरिए अमेरिका और ब्रिटेन मिलकर ऑस्ट्रेलिया को परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बियां बनाने में सहयोग करेंगे और उन्हें अपने समुद्री क्षेत्र में तैनात करने में मदद करेंगे, जिससे कि चीन पर नकेल कसी जा सके।

अमेरिका ने 50 साल बाद किसी देश से परमाणु पनडुब्बी की तकनीक साझा की है। इससे पहले उसने केवल ब्रिटेन को यह तकनीक बताई थी। पनडुब्बी तकनीक भले ही ऑस्ट्रेलिया को मिल रही हो, लेकिन भारत के लिहाज से यह इसलिए राहत की बात होनी चाहिए क्योंकि इसके जरिए जो बाइडेन अफगानिस्तान से ध्यान हटाकर उसे चीन पर केंद्रित करने के अपने वादे को पूरा करते दिख रहे हैं। इस संदर्भ में ऑकुस से बाहर रहकर भी यह भारत के लिए एक सुरक्षा कवच का काम कर सकता है। प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिकी दौरे का एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम यूएनजीए को संबोधित करना भी होगा। दुनिया की नजर इस बात पर रहेगी कि इसमें प्रधानमंत्री जलवायु परिवर्तन के साथ आतंकवाद को लेकर अपना क्या रुख रखते हैं। यह और बात है कि प्रधानमंत्री जिस मंच पर अपनी राय दुनिया से साझा करेंगे, संयुक्त राष्ट्र का वही मंच वैश्विक रुचि के अधिकतर मसलों की ही तरह अफगानिस्तान और आतंकवाद के मामले में भी अपनी साख के मुताबिक कोई सार्थक पहल नहीं कर पाया है।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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