मजहबी कट्टरता का बढ़ता दायरा

October 17, 2021

बांग्लादेश में कुरान के कथित अपमान की अफवाह के बाद भड़की हिंसा में तीन लोगों की जान चली गई और दो लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। हताहतों की संख्या से इस घटना के मायनों को जोड़ना भारी भूल हो सकती है क्योंकि संख्या छोटी है और मायने काफी बड़े हैं।

घटना के विश्लेषण से पता चलता है कि घटना स्थल दूर्गा पूजा का पंडाल था और हिंसा फैलाने का ‘हथियार’ बनी एक फेसबुक पोस्ट। जिस जगह यह वारदात हुई, वहां मुस्लिम तबका वर्षो से दुर्गा पूजा में हिस्सा लेता आया है और इसीलिए पंडालों में किसी पहरेदारी की जरूरत नहीं पड़ती। इसी भरोसे में सेंध लगाकर एक पंडाल में चुपके से कुरान रखी गई और फिर इसकी तस्वीर देखते-ही-देखते सोशल मीडिया पर वायरल कर दी गई, जिसके बाद कट्टरपंथियों ने बांग्लादेश में कई दुर्गा पंडालों और सैकड़ों अल्पसंख्यक हिंदू परिवारों को अपने निशाने पर ले लिया। इसके बाद शुक्रवार को नमाज के बाद हिंदुओं के खिलाफ हिंसा की आग नोआखली में भड़की, जहां इस्कॉन मंदिर के दो साधुओं की हत्या कर दी गई।

नोआखली वही जगह है, जहां महात्मा गांधी उस वक्त भी हिंदू-मुसलमान दंगों को शांत करने की कोशिश कर रहे थे, जब बाकी देश आजादी का जश्न मना रहा था। ताजा हालात ये हैं कि बांग्लादेश में हिंदू अब खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और ‘हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई’ का नारा बुलंद करने वाले भी मान रहे हैं कि बांग्लादेश में अब फिजां बदल गई है। भारत के पूरब के पड़ोसी देश में कट्टर विचारधारा तेजी से बढ़ रही है जिसके कारण बांग्लादेश छोड़कर भारत में शरण लेने वाले हिंदुओं की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है। बांग्लादेश से सात हजार से कुछ ज्यादा किलोमीटर दूर बसे नॉर्वे में भी कट्टरवाद के तीर से मानवता घायल हुई है। वाकया देश की राजधानी ओस्लो के दक्षिण-पश्चिमी शहर कोंसबर्ग से जुड़ा है, जहां डेनिश मूल के एक सिरफिरे ने तीर-धनुष से हमला कर पांच लोगों की जान ले ली। उससे पूछताछ के बाद नॉर्वे की पुलिस ने आधिकारिक बयान जारी किया है कि आरोपित ने कुछ दिन पहले ही अपना धर्म बदलकर इस्लाम अपनाया है, और वो कट्टरपंथ से प्रेरित दिखता है।

महज इन दो घटनाओं के आधार पर कोई धारणा बनाना गलत होगा, लेकिन पलट कर देखा जाए तो ये घटनाएं एकाकी नहीं, बल्कि एक लंबे सिलसिले की कड़ियां जोड़ती दिखती हैं। साल 2016 में बांग्लादेश की ही राजधानी ढाका के गुलशन रेस्त्रां में आईएस का कहर टूटा था, जब आतंकियों ने 20 गैर-मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया था। इसके अगले ही साल केन्या की राजधानी नैरोबी में आतंकी संगठन अल शादाब ने एक मॉल में पहचान-पत्र के आधार पर 59 गैर-मुसलमानों की हत्या कर दी थी। इराक, सीरिया, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में इस तरह की कई घटनाएं हो चुकी हैं। अभी पिछले हफ्ते ही श्रीनगर में भी इसी तरह की दो अलग-अलग वारदात में पांच गैर-मुसलमान को चुन-चुनकर मार डाला गया। मौत का यह तांडव एक विशेष तरह की विचारधारा से प्रेरित दिखता है। हर मामले में इस्लामिक कट्टरवाद की स्पष्ट छाप और धरती से गैर-इस्लाम का वजूद मिटाने वाली जहरीली सोच का प्रभाव है। बेशक, विस्तार का भाव दूसरे धर्मो में भी दिखाई देता है, लेकिन ‘विधर्मिंयों’ के सफाए का जुनून बिरले ही सामने आता है। कई इस्लामी देशों में तो जिहाद के नाम पर मुसलमान किसी दूसरे धर्म के नहीं, बल्कि अपनी कौम के ही दुश्मन बने हुए हैं। शिया-सुन्नी, वहाबी-सलाफी के बीच खिंची तलवारों के साथ ही जो मुसलमान इस्लाम में सुधार की वकालत करता है, वो भी कट्टरपंथियों के निशाने पर आ जाता है। दीगर मामलों में भी देखा जाए तो पूरी दुनिया में इस्लाम का किसी-न-किसी दूसरे धर्म से संघर्ष चल रहा है। यूरोप ईसाइयों के खिलाफ धर्मयुद्ध का अखाड़ा बना हुआ है, तो फिलीस्तीन में यहूदियों से जंग जारी है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं का विरोध है, तो म्यांमार और थाईलैंड में बौद्ध धर्म के खिलाफ जिहाद चल रहा है। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे से इस जुनून को पंख लगने का खतरा और बढ़ गया है।

दुनिया भर में फैले आतंकी संगठनों को लगने लगा है कि अगर तालिबान की इस्लामिक कट्टरवाद की ‘जिद’ अमेरिका जैसी दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्तिको घुटने टेकने पर मजबूर पर सकती है, तो फिर दूसरे किसी देश की क्या बिसात है। यह ‘प्रेरणा’ आगे चलकर दुनिया को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर सकती है, जहां धार्मिंक कट्टरवाद और आतंकवाद में फर्क करना भी मुश्किल हो सकता है। यह कोई हवाई कल्पना नहीं है क्योंकि इतिहास साक्षी है कि जहां कट्टरता को खाद-पानी मिलता है, वहां आतंकवाद की फसल खूब लहलहाती है। यही वजह है कि पिछले महीने शंघाई सहयोग संगठन के 21वें शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी आतंकवाद और मजहबी कट्टरवाद को तराजू के एक ही पलड़े पर रखते हुए इससे मुकाबले के लिए एक समान रणनीति बनाने की ही सलाह दी थी।

कट्टरवाद को अतिवाद में बदलने से रोकने के लिए फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने लगभग इसी राह पर चलते हुए अपने देश में अलगाववादी विरोधी कानून लागू कर समूचे यूरोप के गुस्से को कानूनी रूप दे दिया है। इस कानून में मस्जिदों की फंडिंग, इमामों की ट्रेनिंग, कट्टरवाद बढ़ाने वाली मजहबी शिक्षा, बहुविवाह और जबरन विवाह पर रोक के साथ ही मस्जिदों को सिर्फ धार्मिंक स्थल बनाने और मुस्लिम बच्चों को शिक्षा के लिए स्कूल भेजने समेत ऐसे कई प्रावधान शामिल किए गए हैं, जिन्हें फ्रांस सरकार अपने देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे के लिए चुनौती समझती है। कुछ समय पहले हमारे गृह मंत्रालय ने भी देश में कट्टरता की स्थिति को लेकर एक रिसर्च स्टडी को मंजूरी दी है। वैसे मजहबी कट्टरता को लेकर लंबे समय से एक सोच यह भी बनी हुई है कि इसका निदान उसी विचारधारा में है जिसकी यह उपज है। इस सोच के अनुसार जिस तरह जिहाद की सफलता के लिए हथियारों या जोर-जबर्दस्ती पर भरोसा करना मूर्खता है, उसी तरह इस विचारधारा से निपटने के लिए ताकत का रास्ता अपनाना भी व्यर्थ है। इससे समाज में फैली एक कट्टरता के जवाब में दूसरी कट्टरता बढ़ती है, जिससे समाधान निकलने की बजाय टकराव और बढ़ जाता है। इसलिए कट्टरवादी और अतिवादी सोच के विचार के स्तर पर ही मुकाबला ज्यादा सार्थक और परिणामदायी हो सकता है।

बढ़ती मजहबी कट्टरता के बीच गौर करने वाली एक बात यह भी है कि लोग अब कट्टरता से बाहर भी आ रहे हैं। प्यू रिसर्च का भारत में ही पिछले साल किया एक सर्वे बताता है कि इसमें शामिल 97 फीसद लोगों ने ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास जताया है, लेकिन बौद्ध धर्म एक अपवाद की तरह सामने आया है, जिसके एक-तिहाई अनुयायी किसी ‘सर्वशक्तिमान सत्ता’ में विश्वास नहीं रखते हैं। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि सर्वे में शामिल लगभग छह फीसद मुस्लिम ने भी खुदा की सत्ता में यकीन न रखने की बात कही है। यह इसलिए बड़ी बात है, क्योंकि दूसरे धर्मो की तरह इस्लाम में इस तरह खुलकर अपना धार्मिंक मत जाहिर करने के अपने खतरे होते हैं, और इसे आसानी से ईशनिंदा के दायरे में लाया जा सकता है। वैसे आदर्श स्थिति तो यही है कि धर्म को व्यक्ति की पसंद-नापसंद का विषय रहने दिया जाए, लेकिन जब यह धर्माधता की शक्ल लेकर बड़े स्तर पर समाज और संसार के लिए चुनौती बनने लगे, तो व्यक्तिगत धर्म से ऊपर उठकर समाज और संसार की सुरक्षा के वैश्विक धर्म का पालन जरूरी हो जाता है। दुनिया आज जिस मुहाने पर खड़ी है, वहां विचार से विचार की इस लड़ाई में सकारात्मक धार्मिंक सोच रखने वाले हर शख्स, हर समाज, हर राष्ट्र की जिम्मेदारी बढ़ गई है।


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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