प्रधानमंत्री ने रखा मान, किसान देश का अभिमान

November 21, 2021

करीब एक वर्ष तक चले किसान आंदोलन का ‘मान’ रखते हुए केंद्र सरकार ने आखिरकार नये कृषि कानून वापस ले लिए।

बीते शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्र के नाम संबोधन में जल्द ही इन कानूनों को रद्द करने की संवैधानिक प्रक्रिया शुरू करने का ऐलान किया। चूंकि संसद से पारित किसी कानून की वापसी के लिए भी संसद में ही कानून पारित करवाना होता है, इसलिए 29 नवम्बर से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में कानून वापसी की प्रक्रिया को अंजाम दिया जा सकता है।

कानून वापसी के ऐलान के साथ ही जीत का श्रेय और हार के लांछन की ‘परंपरा’ का निर्वाह भी शुरू हो गया। करीब एक वर्ष तक किसानों ने जिस दृढ़ता के साथ इस आंदोलन को गैर-राजनीतिक रखने की अपनी शपथ निभाई, उसमें देश की सियासी जमात ने इस फैसले के आते ही घुसपैठ कर ली। विपक्ष ने इसे पांच राज्यों खासकर उत्तर प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में सियासी नुकसान के सरकार के डर से जोड़ते हुए किसानों की जीत और सरकार के अहंकार की हार बताया। पिछले सात साल की तरह इस बार भी शाब्दिक हमलों के तीर प्रधानमंत्री को ही लक्ष्य बनाकर छोड़े गए। यह भी दिलचस्प है कि इस फैसले को लोकतंत्र की विजय करार देने वाला विपक्ष इस अवसर पर यह भी भूल गया कि लोकतंत्र में लिए गए फैसले सामूहिक होते हैं और इसलिए इसके लिए कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरी कैबिनेट सामूहिक रूप से जिम्मेदार होती है।

बहरहाल, विपक्ष के छोड़े तीरों के जवाब में सरकार और बीजेपी भी प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिष्ठा के बचाव में आगे आई। प्रधानमंत्री के संबोधन को ही आधार बनाते हुए उनके कैबिनेट सहयोगियों और बीजेपी ने गुरु  नानक देव के प्रकाश पर्व पर आए इस फैसले को सद्भाव का आलोक फैलाने वाला ऐसा निर्णय बताया जिसने प्रधानमंत्री की राजनेता वाली छवि को और पुष्ट किया है। दलील यह दी गई कि इस ऐतिहासिक पहल को हार-जीत के चश्मे से नहीं, बल्कि देश और किसान हित के नजरिये से देखे जाने की जरूरत है।

कानून वापसी का ऐलान करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि शायद किसान हित में की जा रही उनकी तपस्या में कुछ कमी रह गई जिसके कारण वह कुछ किसान भाइयों को समझा नहीं पाए। मौटे तौर पर देखा जाए तो सरकार जो तीन कृषि कानून लाई थी, उनके जरिए मंडियों के साथ ही निजी कंपनियों को भी किसानों के साथ कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंंग, खाद्यान्नों की खरीद, भंडारण और बिक्री का अधिकार मिलने वाला था। कानूनों के जरिए सरकार किसानों को अपनी फसल अपनी मर्जी से, अपनी पसंद के बाजार में बेचने का अधिकार देना चाहती थी, लेकिन किसानों को इस बात का डर था कि नये कानून उन्हें बाजार की मनमानी का शिकार बना देंगे। सबसे ज्यादा आशंका उस एमएसपी के खत्म हो जाने को लेकर थी, जिसका पूरे कानून में कहीं कोई जिक्र नहीं था। किसानों की आशंकाएं दूर करने के लिए सरकार की ओर से गृह मंत्री और कृषि मंत्री स्तर की 12 बैठकें की गई, लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद किसान कानून वापसी की अपनी मांग पर अड़े रहे। एक वक्त ऐसा भी आया कि खुद प्रधानमंत्री ने इन कानूनों को दो साल तक टालने की पेशकश की। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा लेकिन गतिरोध बना रहा।  

आखिरकार, किसानों की मंशा को समझते हुए प्रधानमंत्री ने राष्ट्र हित को सर्वोपरि रखना उचित समझा और एक ऐसा फैसला लिया जिसमें न उनका व्यक्तिगत और न ही पार्टी का कोई हित आड़े आया। इस तथ्य को भी कैसे अनदेखा किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने यह फैसला ऐसे समय में लिया है, जब सदन के दोनों सदनों और देश के कई राज्यों में उनकी सरकार बहुमत में है यानी सरकार पर अपने ही बनाए और कई दलों के समर्थन से पारित हुए कानून को वापस लेने का किसी तरह का कोई संवैधानिक दबाव नहीं था। इसके बावजूद ऐसा निर्णय करना लोकतांत्रित मूल्यों के लिए उनके अंतर्मन में अगाध विश्वास और देश की एकता एवं अखंडता की रक्षा को सर्वोपरि मानने का ही परिचायक है।

बात किसानों की ही करें, तो आजाद भारत में संभवत: किसान हित में किसी सरकार ने इतने काम नहीं किए होंगे, जितने इस सरकार के दोनों कार्यकाल में हुए हैं। जिस तरह सरकार ने सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास के अपने मंत्र को साकार करते हुए समाज के सभी वगरे तक पहुंचने के प्रयास किए हैं, उसी तरह किसानों के भी हर वर्ग के कल्याण की योजनाएं धरातल पर उतारी हैं।

बुवाई से पहले और कटाई के बाद तक प्राकृतिक आपदाओं से फसलों के नुकसान की भरपाई के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, बुजुर्ग किसानों के लिए पेंशन वाली प्रधानमंत्री किसान मानधन योजना, सभी किसानों को सालाना 6,000 रुपये की आर्थिक मदद वाली प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना, किसानों को खेती में सिंचाई के लिए सोलर पंप मुहैया करवाने वाली किसान ऊर्जा सुरक्षा और उत्थान महाभियान यानी ‘कुसुम’ योजना, फसल चक्र में किसानों के लिए कृषि कार्य को आसान बनाने वाली बीज से बाजार योजना, तीन लाख तक का कर्ज लेने पर प्रक्रिया में कोई शुल्क नहीं, छोटे किसानों की सुविधा के लिए आधुनिक कृषि मशीनरी को किराये पर मंगाने के लिए मोबाइल ऐप, गैर-यूरिया खादों की सब्सिडी में बढ़ोतरी और डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के तहत किसानों के खातों में 70 हजार करोड़ रुपये की खाद सब्सिडी दी गई है। इसके साथ ही सरकार ने खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिए हर खेत में 24 घंटे बिजली पहुंचाने, साल 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर बंजर भूमि को खेती योग्य बनाने, खेती को मुनाफे का धंधा बनाने के लिए आर्टििफशियल इंटेलिजेंस तकनीक का उपयोग जैसे लक्ष्य भी तय किए हैं।

जिस सरकारी खरीद और एमएसपी को लेकर आंदोलनकारी किसान आशंकित हैं, उसमें भी इस सरकार के कार्यकाल में लगातार वृद्धि हुई है। लोक सभा में दी गई जानकारी के अनुसार 2013-14 की तुलना में 2019-20 में गेहूं खरीद 87 फीसद और धान खरीद दोगुनी ज्यादा रही है। 2020-21 में धान और गेहूं का एमएसपी भी 2013-14 के मुकाबले क्रमश: 42 और 41 फीसद तक बढ़ा है।

आखिर में एक और अहम तथ्य का उल्लेख भी जरूरी है क्योंकि इसके बिना देश में खेती-किसानी की हर बात अधूरी है। कृषि आज भी हमारे 70 फीसद से ज्यादा ग्रामीण परिवारों की आजीविका का मुख्य स्रोत है। इनमें 80 फीसद से ज्यादा वो छोटे और सीमांत किसान हैं, जिनके लिए प्रधानमंत्री के अनुसार नये कृषि कानून गेमचेंजर साबित हो सकते थे। कृषि कानूनों की वापसी के बाद अब उनका भविष्य फिर यथास्थिति के दौर में पहुंच गया है। भविष्य को लेकर यह सवाल भी खड़ा हो गया है कि इस अनुभव के बाद क्या आने वाली कोई सरकार कृषि सेक्टर में किसी बड़े सुधार, किसानों को उनका वाजिब हक और उनकी फसल को उचित दाम दिलाने वाली ऐसी महत्त्वपूर्ण पहल करने की हिम्मत दिखा पाएगी?
(लेखक सहरा न्यूज नेटवर्क के सीईओ एवं एडिटर-इन-चीफ हैं)


उपेन्द्र राय
सीईओ एवं एडिटर इन चीफ

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